प्रागैतिहासिक चित्रकला में कौन सा स्थान प्रसिद्ध है? - praagaitihaasik chitrakala mein kaun sa sthaan prasiddh hai?

राधाकान्त वर्मा महोदय ने मिर्जापुर के पाषाण युगीन संस्कृतियों पर प्रस्तुत अपने शोध-प्रबन्ध में शिलाश्रय के चित्रों की स्थिति पर विचार व्यक्त किया है। पूर्व ज्ञात राजपुर और अहरौरा क्षेत्रों के अतिरिक्त उन्होंने नवोपलब्ध भैंसोर क्षेत्र को क्रमशः चार, छः और नौ वर्गों में विभाजित करके प्रथम बार व्यवस्थित एवं सचित्र परिचय दिया। उन्होंने इलाहाबाद विकास क्षेत्र के विषय में वर्णन किया। उनके अनुसार वहाँ के कला के निर्माता (आक्षेटक-संग्रहक वर्गद्ध प्रायः उन्हीं पशुओं का चित्रण करते थे, जो कि भोज्य थे, जिनमें से हिरण उनका प्रिय पशु था, जिसके बाद गैंडे का स्थान आता था। गाय, भैंस का चित्रण, हाथी का राजसी रूप तथा जंगली सुअर को झुण्ड में प्रदर्शित किया है। रौंप शिलाश्रय समूह के एक शिलाश्रय में एक्स-रे शैली में निर्मित एक घोड़ा पहचाना गया है। उन्होनें चित्रण प्रक्रिया को एक विकासात्मक क्रम में विभाजित किया, जो निम्न है- 

1. प्राकृतिक 2. भाषात्मक 3. सांकेतिक 

परन्तु इन चित्रों में दिन-प्रतिदिन की क्रिया -कलापों से सम्बंधित दृश्यों का चित्रण नहीं मिलता और न ही स्त्री-पुरूष की आकृतियों में विभेद ही किया गया है। इन सभी चित्रों को एस0 के0 पाण्डेय ने पाँच भागों में बाँटा जो कि निम्न है- 1. प्राकृतिक 2. साहित्यिक 3. आकारिक  4. लौकिक 5. ग्रहणीय 

इनके अनुसार चित्रण क्रिया का प्रारम्भ उच्च पाषाण काल के समय में हुआ है। वी0एन0 मिश्रा तथा मठपाल महोदय ने सम्पूर्ण चित्रकला के निर्माण काल को विभाजित कर नौ कालखण्डों में रखा जिनमें प्रथम पाँच प्रागैतिहासिक काल, छठें को संक्रमण काल तथा ताम्र पाषाण युगीन एवं अन्त के तीन को ऐतिहासिक काल में स्थान प्रदान किया। ककड़कर ने अपना मत व्यक्त करते हुए निर्माण काल को पाँच कालों में बाँटा तथा इन्हें 20 शैलियों में रखा, जिनमें से प्रथम 6 शैलियों को मध्य पाषाणकाल 2,500 ई0पू0 की कालावधि में स्थान प्रदान किया। 

उत्तरी विन्ध्य क्षेत्र के शिलाश्रयों को सर्वप्रथम उच्चपूर्व पाषाण काल तथा मध्य पाषाण काल (संक्रमण काल)के लोगों ने अपना आवास बनाया, जिससे ये अनुमान किया जा सकता है, कि इन्हीं लोगों ने यहाँ के चित्रों का निर्माण किया होगा। अतः सम्भव है, कि मध्य पाषाणकाल की तिथि ही शैलचित्रों की तिथि होगी। यदि कार्बन तिथियों की ओर दृष्टिपात करें, तो उस आधार पर संक्रमण काल को 14,000-13,000 ई0 पू0 से 10,000-9,000 ई0 पू0 के काल कोष्ठक में तथा मध्य पाषाणकाल को 12,000-11,000 ई0 पू0 से 2,000-1,500 ई0 पू0 के काल कोष्ठक में रख सकते है। 

काकबर्न को सर्वपथम रौंप नामक जगह में गैंडे का चित्र देखने को मिला। तत्पश्चात् विजयगढ़ के समीपवर्ती इसी भू-भाग के शिलाश्रयों में गैंडे के अनेक चित्र दिखायी दिये। परन्तु उन्होनंें जिस गैंडे का दृश्य प्रकाशित किया वह विजयगढ़ से दूर घाड़मगर का है। इस दृश्य में गैंडे ने एक शिकारी को अपनी सींग से आगे की ओर उछाल दिया है तथा अन्य शिकारी समूह प्रस्तर युगीन भाले से गैंडे पर प्रहार कर रहे हैं। ये गैरिक वर्णी प्रभावशाली चित्र है। 



चित्र संख्या-3    




काकबर्न ने लिखनिया-2 के विवरण को प्रधानता प्रदान किया है। इसके बायीं ओर कंडाकोट और सोरहोघाट के शिलाश्रय प्राप्त होते है, जो कि राबर्टसगंज से चार मील दूर है। पास में ‘ढोकवा महारानी’ नामक से विख्यात शिलाएँ है, जिनमें ‘पे्रतभय के दृश्य’ के साथ-साथ ‘साही के आखेट’ दृश्य मिलता है। गरई और भल्डारिया नदी के संगम पर स्थित छातु ग्राम से प्राप्त आखेट दृश्य पर काकबर्न महोदय का हस्ताक्षर अंकित है। सम्भवतः इस स्थान की पहली खोज इन्हीं के द्वारा की गयी है। यह आखेट दृश्य शिलाचित्रों में सबसे पुरातन स्थान बनाए हुए है, यह दृश्य हाथी के आखेट का है। कंडाकोट पहाड़ के समीप लिखनिया नामक गुफा के दायीं ओर गहरे गेरूए रंग में ‘सांभर का आखेट’ मिलता है। इसकी खोज भी काकबर्न महोदय ने ही किया तथा सन् 1899 में ‘जे0 आर0 ए0 एस0’ में प्रकाशित किया। उन्होनें यहाँ के काँटेदार भाले के चित्रण शैली की तुलना आस्ट्रेलिया के आदिवासियों द्वारा प्रयुक्त शैली से की है। 





चित्र संख्या-4 




डा0 जगदीश गुप्त ने मिर्जापुर के सम्भवतः समस्त क्षेत्र से प्राप्त विभिन्न प्रकार के आखेट चित्र का वर्णन अत्यन्त ही सुगठित रूप में किया है। इन्होनें मुख्यतया क्षेत्र परिचय से लेकर रंग योजना के साथ- साथ भौगोलिक परिचय को भी बताने का प्रयास किया है। इन्होनें चित्रों की स्वाभाविकता को ध्यान में रखते हुए चित्रों का वर्णन अत्यन्त ही मनोहारी रूप में व्यक्त करने का प्रयास किया। पहली बार यहाँ पशुपालन की अवस्था के पूर्व युग की मनः स्थिति की परिकल्पना की। हालाँकि पक्षियों के चित्रों का अभाव मिलता है। परन्तु कुछ स्थानों पर पक्षी भी अंकित पाये गये है, जैसे-लिखनिया-1 में गहरी लाल रंग की रेखाओं से अंकित एक मयूराकृति जो कि ज्यामितीय कलात्मक विन्यास के साथ संपुजित किया गया है। इसी के साथ-साथ कोहबर नामक स्थान से प्राप्त सशक्त लाल रेखाओं में एक मयूराकृति की अद्वितीय चित्र है। चित्रों में मानव आकृतियाँ अधिकतर समूह में आखेट को जाते हुए या करते हुए दृष्टव्य है अथवा अकेले किसी पशु का सामना कर रहे हैं। कहीं-कहीं मनोरंजन के दृश्य तथा कहीं-कहीं नृत्य वादन की अवस्था में दिखते हैं। अधिकतर चित्र असम्बद्ध प्रतीत होते हैं। रौंप से प्राप्त एक शिलाश्रय में अचित्र स्त्री की लगती है परन्तु रेखाएँ अस्पष्ट होने से उसका केवल आभास मात्र ही हो पाता है। 

आखेट, नृत्य-वादन, युद्ध अश्वारोही आदि के अतिरिक्त आदिम मानवों में धर्म एवं उपासना के भी भाव परिलक्षित होते हैं। ‘स्वास्तिक’ का प्रमाण हमें पंचमढ़ी क्षेत्र के बनियाबेरी नामक गुफा से मिलता है। लिखनिया-2 की गुफा के एक चि़त्र में एक अद्भुत देवाकृति की परिकल्पना दिखती है। इसके प्रतीकात्मक रूप  को देखकर देवत्व का आभास होता है। इसी क्रम में अन्य स्थल कंडाकोट पहाड़ के पास बसौली ग्राम के निकट स्थित ‘ढ़ोकवा महारानी’ में विचित्र एवं रहस्यमयी भाव की एक आकृति है, जिसके पैर उल्टी दिशा में अंकित है तथा हाथ वरद मुद्रा में अंकित  है। रौंप नामक स्थान पर हमें चैक पूरने की अनुकृतियाँ मिलती है। इसी स्थान पर कई ज्यामितीय प्रतीक चिह्न प्राप्त होते हैं, जिन्हें वृत्तों तथा आयत की सहायता से बनाया गया है। इस समय के कलाकार की रेखाओं में जादुई भावनाओं के समस्त गुण विद्यमान थे। इनके अंकनों में एक अन्य गुण स्वाभाविकता से प्रतीकात्मकता की ओर गमन भी दृष्टिगोचर होता है। इन्हें धूप-छाँव का अनुभव था, क्योंकि जानवरों के आकार विशेष को काले या लाल रंगों द्वारा इसके प्रभाव को दिखाने का प्रयत्न किया गया।



चित्र संख्या-5   


चित्रण प्रायः गेरू तथा लोहे के अन्य भस्मों से किया जाता था, जो पीले, भूरे, नारंगी तथा लाल रंगों में नोडूल अथवा छर्रियों के रूप में मिलते हैं। काले के लिए मैगनीज आक्साइड तथा सफेद के लिए काउलिन (एक प्रकार का चूना पत्थर) अथवा चल्सिडनी प्रयोग में लाते थे। गहरे हरे रंग के लिए ताँबे का मिश्रण प्रयोग करते थे। जानवरों के पुट्ठों की हड्डियों का प्रयोग वह सम्भवतः प्लेट या तश्तरी के रूप में करते थे। आकृतियों की सीमारेखा को अधिकांश नुकीले पत्थर से खोदकर बनाया गया है, जिससे उनका स्थायित्व बना रहे। रंगने के लिए जिस तूलिका का प्रयोग करते थे, उसे रेशेदार लकड़ी, बाँस या नरकुल आदि के सिरे को कूटकर बनाते थे। 

ये शिलाचित्र विषय शैली तथा सामग्री की दृष्टि से उस समय के मानव जीवन के प्रतीक हे, अर्थात् इनके विषय मुख्यतः जानवर, उनका आखेट करते हुए मनुष्य, आपस में युद्ध करते हुए मनुष्य एवं पूजनीय आकृतियाँ है। इनकी शैली आदिम है। इनकी सामग्री घातु (खनिज रंग मुख्यतः गेरू, हिरौंजी आदि) हैं, तथा इनके स्थान उक्त गुहागृह एवं खुली चट्टानें हैं। अस्तु ऐसा प्रतीत होता है कि प्रागैतिहासिक चित्रकला कृतियाँ तत्कालीन मानव जीवन की जीवन्त कहानी है, जिनके सूक्ष्म अवलोकन से उनके सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा प्रकृति शक्तियों के प्रति उनके विश्वासों का आकलन तथा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। 

उत्तर प्रदेश में प्रागैतिहासिक चित्र कहाँ मिले हैं?

सबसे अधिक और सुंदर शैल चित्र मध्य प्रदेश में विंध्याचल की शृंखलाओं और उत्तर प्रदेश में कैमूर की पहाड़ियों में मिले हैं

निम्न में से कौन सा स्थल प्रागैतिहासिक चित्रकला के लिए प्रसिद्ध है?

सही उत्तर भीमबेटका है। भीमबेटका प्रागैतिहासिक चित्रों के लिए प्रसिद्ध है।

भारतवर्ष में प्रागैतिहासिक चित्रों की खोज सर्वप्रथम कहाँ हुई?

प्रागैतिहासिक कला का पहला प्रमाण 1878 ई. में इटली और फ्रांस में मिला तथा भारत में भित्तिचित्र चित्रकला के महत्व पर 1880 ई. में आर्किबाल्ड कार्लेली और जॉन कॉकबर्न ने कैमर (मिर्जापुर) पहाड़ी पेंटिंग्स के आधार देश को अवगत कराया था।

चित्रकला का जनक कौन है?

राजा रवि वर्मा को आधुनिक भारतीय चित्रकला का जनक (द फादर ऑफ मॉडर्न इंडियन आर्ट) कहा जाता है।

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