हमारा शरीर ब्रह्मांड की एक ईकाई है। जैसा ऊपर, वैसा नीचे। जैसा बाहर, वैसा भीतर। संपूर्ण ब्रह्मांड को समझने के बजाय यदि आप खुद के शरीर की संवरचना को समझ लेंगे तो ब्राह्मांड और उसके संचालित होने की प्रक्रिया को भी समझ जाएंगे। यहां प्रस्तुत है शरीर में स्थित प्राण की स्थिति के बारे में।
प्राण के निकल जाने से व्यक्ति को मृत घोषित किया जाता है। यदि प्राणायाम द्वारा प्राण को शुद्ध और दीर्घ किया जा सके तो व्यक्ति की आयु भी दीर्घ हो जाती है। प्राण के विज्ञान को जरूर समझें। व्यक्ति जब जन्म लेता है तो गहरी श्वास लेता है और जब मरता है तो पूर्णत: श्वास छोड़ देता है। प्राण जिस आयाम से आते हैं उसी आयाम में चले जाते हैं। हाथी, व्हेल और कछुए की आयु इसलिए अधिक है क्योंकि उनके श्वास प्रश्वास की गति धीमी और दीर्घ है।
वैदिक विज्ञान के अनुसार :
जिस तरह हमारे शरीर के बाहर कई तरह की वायु विचरण कर रही है उसी तरह हमारे शरीर में भी कई तरह की वायु विचरण कर रही है। वायु है तो ही प्राण है। अत: वायु को प्राण भी कहा जाता है। वैदिक ऋषि विज्ञान के अनुसार कुल 28 तरह के प्राण होते हैं। प्रत्येक लोक में 7-7 प्राण होते हैं।
जिस तरह ब्राह्माण में कई लोकों की स्थिति है जैसे स्वर्ग लोक (सूर्य या आदित्य लोक), अंतरिक्ष लोक (चंद्र या वायु लोक), पृथिवि (अग्नि लोक) लोक आदि, उसी तरह शरीर में भी कई लोकों की स्थिति है।
शरीर में कंठ से दृदय तक सूर्य लोक, दृदय से नाभि तक अंतरिक्ष लोक, नाभि से गुदा तक पृथिवि लोक की स्थिति बताई गई है। अर्थात हमारे शरीर की स्थिति भी बाहरी लोकों की तरह है। यही हम पृथिति लोक की बात करें तो इस अग्नि लोक भी कहते हैं। नाभि से गुदा तक अग्नि ही जलती है। उसके उपर दृदय से नाभि तक वायु का अधिकार है और उससे भी उपर कंठ से हृदय तक सूर्य लोक की स्थिति है। कंठ से उपर ब्रह्म लोक है।
कंठ से गुदा तक शरीर के तीन हिस्से हैं। उक्त तीन हिस्सों या लोकों में निम्नानुसार 7,7 प्राण हैँ। कंठ से गुदा तक शरीर के तीन हिस्से हैं। उक्त तीन हिस्सों या लोकों में निम्नानुसार 7,7 प्राण है। ये तीन हिस्से हैं- कंठ से हृदय तक, हृदय से नाभि तक और नाभि से गुदा तक। पृथिवि लोक को बस्ती गुहा, वायुलोक को उदरगुहा व सूर्यलोक को उरोगुहा कहा है। इन तीनोँ लोको मेँ हुए 21 प्राण है।
पांव के पंजे से गुदा तक तथा कंठ तक शरीर प्रज्ञान आत्मा ही है, किंतु इस आत्मा को संचालन करने वाला एक और है- वह है विज्ञान आत्मा। इसको परमेष्ठी मंडल कहते हैं। कंठ से ऊपर विज्ञान आत्मा में भी 7 प्राण हैँ- नेत्र, कान, नाक छिद्र 2, 2, 2 तथा वाक (मुंह)। यह 7 प्राण विज्ञान आत्मा परमेष्ठी में हैँ।
अब परमेष्ठी से ऊपर मुख्य है स्वयंभू मंडल जिसमें चेतना रहती है यही चेतना, शरीर का संचालन कर रही है अग्नि और वायु सदैव सक्रिय रहते हैं। आप सो रहे है कितु शरीर मेँ अग्नि और वायु (श्वांस) निरंतर सक्रिय रहते हैं। चेतना, विज्ञान आत्मा ही शरीर आत्मा का संचालन करती है। परमेष्ठी में ठोस, जल और वायु है। यही तीनों, पवमान सोम और वायव्यात्मक जल हैं। इन्हीं को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन कहते हैं जल और वायु की अवस्था 3 प्रकार की है अत:जीव भी तीन प्रकार अस्मिता, वायव्य और जलज होते हैं। चेतना को भी लोक कहा है। इसे ही ब्रह्मलोक, शिवलोक या स्वयंभूलोक कहते हैं। ब्रह्मांड भी ऐसा ही है।
'प्राण' का अर्थ योग अनुसार उस वायु से है जो हमारे शरीर को जीवित रखती है। शरीरांतर्गत इस वायु को ही कुछ लोग प्राण कहने से जीवात्मा मानते हैं। इस वायु का मुख्य स्थान हृदय में है। इस वायु के आवागमन को अच्छे से समझकर जो इसे साध लेता है वह लंबे काल तक जीवित रहने का रहस्य जान लेता है। क्योंकि वायु ही शरीर के भीतर के पदार्थ को अमृत या जहर में बदलने की क्षमता रखती है।
हम जब श्वास लेते हैं तो भीतर जा रही हवा या वायु मुख्यत: पांच भागों में विभक्त हो जाती है या कहें कि वह शरीर के भीतर पांच जगह स्थिर और स्थित हो जाता हैं। लेकिन वह स्थिर और स्थित रहकर भी गतिशिल रहती है।
ये पंचक निम्न हैं- (1) व्यान, (2) समान, (3) अपान, (4) उदान और (5) प्राण।
वायु के इस पांच तरह से रूप बदलने के कारण ही व्यक्ति की चेतना में जागरण रहता है, स्मृतियां सुरक्षित रहती है, पाचन क्रिया सही चलती रहती है और हृदय में रक्त प्रवाह होता रहता है। इनके कारण ही मन के विचार बदलते रहते या स्थिर रहते हैं। उक्त में से एक भी जगह दिक्कत है तो सभी जगहें उससे प्रभावित होती है और इसी से शरीर, मन तथा चेतना भी रोग और शोक से घिर जाते हैं। मन-मस्तिष्क, चरबी-मांस, आंत, गुर्दे, मस्तिष्क, श्वास नलिका, स्नायुतंत्र और खून आदि सभी प्राणायाम से शुद्ध और पुष्ट रहते हैं। इसके काबू में रहने से मन और शरीर काबू में रहता है।
1.व्यान:- व्यान का अर्थ जो चरबी तथा मांस का कार्य करती है।
2.समान:- समान नामक संतुलन बनाए रखने वाली वायु का कार्य हड्डी में होता है। हड्डियों से ही संतुलन बनता भी है।
3.अपान:- अपान का अर्थ नीचे जाने वाली वायु। यह शरीर के रस में होती है।
4.उदान:- उदान का अर्थ उपर ले जाने वाली वायु। यह हमारे स्नायुतंत्र में होती है।
5.प्राण:- प्राण वायु हमारे शरीर का हालचाल बताती है। यह वायु मूलत: खून में होती है।
प्राणायाम करते या श्वास लेते समय हम तीन क्रियाएं करते हैं- 1.पूरक 2.कुम्भक 3.रेचक। उक्त तीन तरह की क्रियाओं को ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्भक कहते हैं।
प्राण का अर्थ ब्रह्मांड जीवन शक्ति या व्यक्तिगत महत्वपूर्ण जीवन ऊर्जा हैं । यह जीवनी शक्ति या जीवन का सिद्धांत हैं ।जब कोई व्यक्ति मर जाता है तो कहते हैं कि उसने प्राण त्याग दिया । मृत्यु के समय यकृत, गुर्दे, आंख आदि जैसे शरीर में से कुछ अंग कार्यात्मक हो सकते हैं। वास्तव में इस प्रकार एक शव से अंग प्रत्यारोपण किया जा सकता हैं। शरीर में अब इन अंगो का कोई कार्य नहीं है क्योंकि शरीर में प्राण नहीं है ।
एक अलग शरीर जहां प्राण है उससे क्षतिग्रस्त अंग को प्रतिस्थापित किया जा सकता हैं क्योंकि उसमें प्राण हैं।
अगर मुख शरीर छोड़ दे तो मुख के विना जीवन संभव है, अगर आंखे साथ छोड़ दे तो आंखों के बिना जीवन संभव हैं, कान शरीर छोड़ दे तो भी जीवन संभव हैं लेकिन प्राण शरीर छोड़ दे तो जीवन समाप्त हो जाता हैं ।
प्राण हमारे सभी संकायो को ऊर्जा देता है । जैसा कि हम अपने योग अभ्यास से जानते हैं कि प्राणायाम का अभ्यास करना लाभकारी है। प्राणायाम पांच कोशो में से ,एक प्राणायाम कोश पर कार्य करता हैं।
प्राणायाम कोश के स्तर पर, पंच प्राण अलग-अलग कार्यो का प्रतिनिधित्व करते हैं।ये पांच कार्य शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक स्तर पर शरीर के कामकाज को प्रभावित करते हैं।
पंच प्राण का उल्लेख निम्न प्रकार हैं
इस प्राण को सर्वव्यापी महत्वपूर्ण बल से अलग करने के लिए स्थूल प्राण के रूप में भी जाना जाता हैं। स्थूल प्राण मध्यक्षेत्र और गले के बीच छाती में स्थित ऊर्जा धाराओ को संदर्भित करता हैं। यह जीवन ऊर्जा के संचालन का केन्द्र हैं। मानसिक अनुभव के लिए, भोजन करने, पानी पीने, और श्वास को नियंत्रित करता है । यह प्राण दिल, फेफड़ो, छाती के क्षेत्र में सभी गतिविधियों को सांस लेने, निगलने और रक्त परिसंचरण को बनाए रखता हैं। जब सख्त काम करते हैं तो दिल की धडकन बढ़ जाती हैं तो स्थूल प्राण का स्तर बढ़ जाता हैं। पंच प्राणो मे यह चारो प्राण को नियंत्रित करता हैं।
2. अपान वायु
अपान वायु नाभि और मूलाधार के बीच कुक्षीय क्षेत्र में काम करता हैं। अपान नाभि से मूलाधार तक की ऊर्जा संबंधित गतिविधि को नियंत्रित करता हैं। यह ऊपर से नीचे की ओर जाता है। यह मल मूत्र के उन्मूलन, वीर्य, मासिक धर्म, भ्रूण के निष्कासन और सांस के माध्यम से कार्बन डाई आक्साइड को खत्म करने पर शासन करता हैं। यह गहरे स्तर पर नकारात्मक संवेदी, भावनात्मक और मानसिक अनुभवो को खत्म करने का नियम बनाता है । यह सभी स्तरों पर हमारे प्रतिरक्षा कार्य का आधार हैं। अपान शरीर के निचले स्तर में मूत्र – जननांग और उत्सर्जित प्रणालियों के लिए जिम्मेदार हैं।
3. उदान वायु
उदान वायु ऊपर की तरफ बढता हैं। यह शरीर के विकास, खड़े रहने की क्षमता, भाषण, प्रयास, उत्साह,इच्छा को नियंत्रित करता हैं। यह जीवन की मुख्य सकारात्मक ऊर्जा हैं,इसके माध्यम से हम अपने शरीर को विकसित करते हैं। और चेतना विकसित करते हैं। उदान चरम सीमा में काम करता हैं। यह प्राण सभी ज्ञानेन्द्रिया और कर्मेद्रियों के लिए जिम्मेदार है।
4. समान वायु
समान वायु सूक्ष्मदर्शी कार्यवाही के माध्यम से परिधि से केन्द्र तक जाती हैं। यह नाभि और मध्यक्षेत्र के बीच काम करती हैं। समान शब्द मूल समान से लिया गया है।
समान पाचन अंगों और उनके स्रावो को सक्रिय बनाता हैं। और उपापचय के लिए जिम्मेदार होता हैं। यह पाचन अंग व जठरअग्नि से जुड़ा हुआ हैं। समान सभी स्तरों पर पाचन में सहायक हैं। यह आक्सीजन को अवशोषित करने के लिए जठराग्नि प्रणाली पर कार्य करता हैं।
व्यान वायु केन्द्र से परिधि की ओर जाता हैं। यह सभी स्तरों के परिसंचरण को नियंत्रित करता हैं। यह पूरे शरीर में भोजन ,पानी ,आक्सीजन को स्थानांतरित करता है। और हमारे विचारों, भावनाओं को दिमाग में फैलाता हैं। व्यान शरीर के विभिन्न हिस्से में आवेग भेजने का कार्य करता हैं। और सभी गतिविधियों को नियंत्रित करता हैं। मासपेशियों को नियंत्रित व समन्वय करता हैं।
लधु प्राण
पंच प्राण के साथ पांच लघु या उप-प्राण हैं।
ये नाग,कुर्म,कूकल,देवदत्त,धनंजय हैं
इस में डकार व हिचकी का क्षेत्र है। जब वायु तत्व उत्तेजित होता हैं तो नाग सक्रिय हो जाता हैं। और पेट की हवा को बाहर फेकने की कोशिश करता हैं। जिससे उदान, प्राण,व समान में कम्पन पैदा होता हैं। ध्यान की स्थिति में नाग काम नहीं करता है।
कुर्म
यह आँखो के पलक झपकने का क्षेत्र हैं। और आँखो को स्वस्थ्य, नम और संरक्षित रखता हैं। आँखे कुर्म ऊर्जा के कारण चमकती हैं। जब कुर्म नियंत्रण में होता हैं तो योगी आँखो को खोलकर योग कर सकता हैं । मोमबत्ती का त्राटक इसका उदाहरण हैं। ध्यान के दोरान यह एकाग्रता बनाने में सहायक हैं।
कूकल
यह झुकाव, भूख, प्यास, का क्षेत्र है। यह श्वसन में सहायता करता हैं। कूकर अभ्यास के साथ नियंत्रित होता हैं। सुस्ती, नींद खत्म हो जाती हैं। भूख, प्यास नियंत्रित रहती हैं।
यह छीकने का क्षेत्र हैं। यह तेज गंध में सक्रिय होता हैं। अपने सूक्ष्म अवस्था में देवदत्त, चिकित्सा को गंध का अनुभव करने हेतु सक्रिय बनाता हैं।
धनंजयस्पर्श अंग से संबंधित हैं। यह मासपेशियों, नसों त्वचा के काम को प्रभावित करता हैं। चोट के कारण सूजन धनंजय के कारण होती हैं। शरीर को यह मजबूती देता हैं। यह शरीर छोड़ने के लिए आखिरी प्राण हैं, शरीर अपघटन के लिए जिम्मेदार हैं।प्राण और मन
मनोवैज्ञानिक स्तर पर, प्राण, मन, इंद्रियों के माध्यम से भावना और ज्ञान के सकारात्मक स्रोतों के प्रति हमारी ग्रहणशीलता को नियंत्रित करता हैं। जब इसे अपमानित किया जाता हैं। तो यह गलत इच्छा और लालसा का कारण बनता हैं। हम गुमराह, गलत निर्देशन और संतुलन से बारह हो जाते हैं।
समान वायु हमे दिमाग में पोषण, संतुष्टि और संतुलन देता है। जब इसे अपमानित करते हैं तो दिमाग मे लालच, लगाव बढता हैं।
व्यान वायु हमें दिमाग मे स्वतंत्र गतिविधि और आजादी देता हैं। जब इसे अपमानित करते हैं तो अलगाव, घृणा का कारण पैदा होता हैं।
उदान हमे खुशी, उत्साह देता हैं। और हमारी उच्च आध्यात्मिक और रचनात्मक क्षमता को जागृत करता हैं। जब इसे अपमानित करते हैं तो गर्व व अंहकार पैदा होता हैं।
जब हम ध्यान करते हैं तो इन प्राणो के सूक्ष्म पहलू जागने लगते हैं। हम ऊर्जा, महान शान्ति, हल्केपन ,स्थिरता, संवेदनशीलता की भावना का अनुभव कर सकते हैं ।
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