नई कहानी के प्रवर्तक कौन है? - naee kahaanee ke pravartak kaun hai?

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नयी कहानी आंदोलन के नायक थे मोहन राकेश

मोहन राकेश हिंदी साहित्य के उन चुनिंदा साहित्यकारों में हैं जिन्हें ''नयी कहानी आंदोलन'' का नायक माना जाता है और साहित्य जगत में अधिकांश लोग उन्हें उस दौर का ''महानायक'' कहते हैं।

मोहन राकेश हिंदी साहित्य के उन चुनिंदा साहित्यकारों में हैं जिन्हें 'नयी कहानी आंदोलन' का नायक माना जाता है और साहित्य जगत में अधिकांश लोग उन्हें उस दौर का 'महानायक' कहते हैं। उन्होंने 'आषाढ़ का एक दिन' के रूप में हिंदी का पहला आधुनिक नाटक भी लिखा। कहानीकार−उपन्यासकार प्रकाश मनु भी ऐसे ही लोगों में शामिल हैं, जो नयी कहानी के दौर में मोहन राकेश को सर्वोपरि मानते हैं। मनु ने कहा, 'नयी कहानी आंदोलन ने हिंदी कहानी की पूरी तस्वीर बदली है। उस दौर में तीन नायक मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव रहे। मैं मोहन राकेश को सबसे ऊपर मानता हूं। खुद कमलेश्वर और राजेंद्र यादव भी राकेश को हमेशा सर्वश्रेष्ठ मानते रहे।'

राकेश का जन्म आठ जनवरी, 1925 को अमृतसर में हुआ। किशोरावस्था में सिर से पिता का साया उठने के बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पढ़ाई जारी रखी। राकेश ने लाहौर स्थित पंजाब विश्वविद्यालय से अंग्रेजी और हिंदी भाषा में एमए किया। एक शिक्षक के रूप में पेशेवर जिंदगी की शुरुआत करने के साथ ही उनका रुझान लघु कहानियों की ओर हुआ। बाद में उन्होंने कई नाटक और उपन्यास लिखे। मनु कहते हैं, 'मोहन राकेश की रचनाएं पाठकों और लेखकों के दिलों को छूती हैं। एक बार जो उनकी रचना को पढ़ता तो वह पूरी तरह से राकेश के शब्दों में डूब जाता है।'

राकेश के उपन्यास 'अंधेरे बंद कमरे', 'ना आने वाला कल', 'अंतराल' और 'बकलम खुद' है। इसके अलावा 'आधे अधूरे', 'आषाढ़ का एक दिन' और 'लहरों के राजहंस' उनके कुछ मशहूर नाटक हैं। 'लहरों के राजहंस' नाटक का निर्देशन रामगोपाल बजाज और अरविंद गौड़ जैसे रंगमंच के बड़े नामों ने किया। 'उसकी रोटी' नामक कहानी राकेश ने लिखी, जिस पर 1970 के दशक में फिल्मकार मणि कौल ने इसी शीर्षक से एक फिल्म बनाई। फिल्म की पटकथा खुद राकेश ने लिखी थी।

साहित्यकार प्रेम जनमेजय का कहना है, 'मोहन राकेश की रचनाओं में गजब की प्रयोगशीलता थी। उनके हर नाटक और उपन्यास में कुछ अलग है। एक महान लेखक होने के अलावा उनमें लेखकीय स्वाभिमान था। इसको लेकर वह विख्यात हैं। नयी कहानी दौर में उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई।' हिंदी साहित्य में उनके अमूल्य योगदान के लिए राकेश को 1968 में संगीत नाटक अकादमी सम्मान से नवाजा गया। 3 जनवरी, 1972 को महज 47 साल की उम्र में राकेश का निधन हो गया।

Disclaimer:प्रभासाक्षी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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Vijay K. Malhotra

unread,

Jan 8, 2015, 3:35:50 PM1/8/15

to Hindi Vimarsh, Hindishikshakbandu googlegroup, Hind Pocket Books, Prempal Sharma, Ashok Chakradhar, Sanjay Bhardwaj, Atul Tiwari, kailash budhwar, Verma, Bumroong Kham-Ek, Aditya Chaudhary, Priyanka Jain, Rishabha Deo Sharma, Ranjana Varshney (Faculty Aravali), geeta sharma, geeta joshi, rosaiah konjeti, ajit gupta, Herman van Olphen, Lalit Kumar, Shankar, Jishnu, Shrish Jaswal, Omkar N. Koul, Kalim Mekrani, Manish Modi, Om Thanvi, SUDHA USA

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति

 (जन्म: 8 जनवरी, 1925 - मृत्यु: 3 जनवरी, 1972) 'नई कहानी आन्दोलन' के साहित्यकार थे। हिन्दी नाटक के क्षितिज पर मोहन राकेश का उदय उस समय हुआ, जब स्वाधीनता के बाद पचास के दशक में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का ज्वार देश में जीवन के हर क्षेत्र को स्पन्दित कर रहा था। उनके नाटकों ने न सिर्फ़ नाटक का आस्वाद, तेवर और स्तर ही बदल दिया, बल्कि हिन्दी रंगमंच की दिशा को भी प्रभावित किया। आधुनिक हिन्दी साहित्य काल में मोहन राकेश ने अपने लेखन से दूर होते हिन्दी साहित्य को रंगमंच के क़रीब ला दिया और स्वयं को भारतेन्दु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद के समकक्ष खड़ा कर दिया।

जीवन परिचय

मोहन राकेश हिंदी साहित्य के उन चुनिंदा साहित्यकारों में हैं जिन्हें नयी कहानी आंदोलनका नायक माना जाता है और साहित्य जगत में अधिकांश लोग उन्हें उस दौर का महानायककहते हैं। उन्होंने आषाढ़ का एक दिनके रूप में हिंदी का पहला आधुनिक नाटक भी लिखा। कहानीकार-उपन्यासकार प्रकाश मनु भी ऐसे ही लोगों में शामिल हैं, जो नयी कहानी के दौर में मोहन राकेश को सर्वोपरि मानते हैं। प्रकाश मनु ने कहा ‘‘नयी कहानी आंदोलन ने हिंदी कहानी की पूरी तस्वीर बदली है। उस दौर में तीन नायक मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव रहे। खुद कमलेश्वर और राजेंद्र यादव भी राकेश को हमेशा सर्वश्रेष्ठ मानते रहे।

जन्म तथा शिक्षा

मोहन राकेश का जन्म 8 जनवरी, 1925 को अमृतसर, पंजाब में हुआ था। उनके पिता पेशे से वकील थे और साथ ही साहित्य और संगीत के प्रेमी भी थे। पिता की साहित्यिक रुचि का प्रभाव मोहन राकेश पर भी पड़ा। मोहन राकेश ने पहले लाहौर के 'ओरियंटल कॉलेज' से 'शास्त्री' की परीक्षा पास की। किशोरावस्था में सिर से पिता का साया उठने के बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पढ़ाई जारी रखी। इसके बाद उन्होंने 'पंजाब विश्वविद्यालय' से हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम.ए. किया। एक शिक्षक के रूप में पेशेवर ज़िंदगी की शुरुआत करने के साथ ही उनका रुझान लघु कहानियों की ओर हुआ। बाद में उन्होंने कई नाटक और उपन्यास लिखे। बाद में अनेक वर्षों तक दिल्ली, जालंधर, शिमला और मुम्बई में अध्यापन कार्य करते रहे।

स्वतंत्र लेखन

अपनी साहित्यिक अभिरुचि के कारण मोहन राकेश का अध्यापन कार्य में मन नहीं लगा और एक वर्ष तक उन्होंने 'सारिका' पत्रिका का सम्पादन किया। इस कार्य को भी अपने लेखन में बाधा समझकर इससे किनारे कर लिया और जीवन के अन्त तक स्वतंत्र लेखन ही इनके जीविकोपार्जन का साधन रहा। मोहन राकेश हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और उपन्यासकार थे। समाज की संवेदनशील अनुभूतियों को चुनकर उनका सार्थक सम्बन्ध खोज निकालना उनकी कहानियों की विषय-वस्तु थी।

साहित्यिक परिचय

हिन्दी नाटकों में भारतेंदु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद के बाद का दौर मोहन राकेश का दौर है, जिसमें हिन्दी नाटक दुबारा रंगमंच से जुड़े। हिन्दी नाट्य साहित्य में भारतेंदु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद के बाद यदि कोई लीक से हटकर नाम उभरता है तो वह मोहन राकेश का है। बीच में और भी कई नाम आते हैं, जिन्होंने आधुनिक हिन्दी नाटक की विकास-यात्रा में महत्त्वपूर्ण पड़ाव तय किए, किन्तु मोहन राकेश का लेखन एक अलग ही स्थान पर नज़र आता है। इसलिए ही नहीं कि उन्होंने अच्छे नाटक लिखे, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने हिन्दी नाटक को अँधेरे बन्द कमरों से बाहर निकाला और एक नए दौर के साथ जोड़कर दिखाया।[2]

रचनाएँ

मोहन राकेश की रचनाएँ पाठकों और लेखकों के दिलों को छूती हैं। एक बार जो उनकी रचना को पढ़ता है तो वह पूरी तरह से राकेश के शब्दों में डूब जाता है। राकेश के उपन्यास अंधेरे बंद कमरे’, ‘न आने वाला कल’, ‘अंतरालऔर बाकलमा खुदाहै। इसके अलावा आधे अधूरे’, ‘आषाढ़ का एक दिनऔर लहरों के राजहंसउनके कुछ मशहूर नाटक हैं। लहरों के राजहंसउनका सबसे विख्यात नाटक रहा। मोहन राकेश ने नाटक, उपन्यास, कहानी, यात्रा वृत्तान्त, निबन्ध आदि विधाओं में विपुल साहित्य की रचना की।

कथा साहित्य

मोहन राकेश पहले कहानी विधा के ज़रिये हिन्दी में आए। उनकी 'मिसपाल', 'आद्रा', 'ग्लासटैंक', 'जानवर' और 'मलबे का मालिक' आदि कहानियों ने हिन्दी कहानी का परिदृश्य ही बदल दिया। वे 'नयी कहानी आन्दोलन' के शीर्ष कथाकार के रूप में चर्चित हुए। मोहन राकेश हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और उपन्यासकार हैं। उनकी कहानियों में एक निरंतर विकास मिलता है, जिससे वे आधुनिक मनुष्य की नियति के निकट से निकटतर आते गए हैं। उनकी खूबी यह थी कि वे कथा-शिल्प के उस्ताद थे और उनकी भाषा में गज़ब का सधाव ही नहीं, एक शास्त्रीय अनुशासन भी है। कहानी से लेकर उपन्यास तक में उनकी कथा-भूमि शहरी मध्य वर्ग है। कुछ कहानियों में भारत-विभाजन की पीड़ा बहुत सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है। कहानी के बाद राकेश को सफलता नाट्य-लेखन के क्षेत्र में मिली है।

 नाट्य-लेखन

मोहन राकेश को कहानी के बाद नाट्य-लेखन के क्षेत्र में सफलता मिली। मोहन राकेश को हिन्दी नाटकों का अग्रदूत भी कह सकते हैं। हिन्दी नाट्य साहित्य में भारतेन्दु और प्रसाद के बाद कोई नाम उभरता है तो वह मोहन राकेश का है। उन्होंने अच्छे नाटक लिखे और हिन्दी नाटक को अँधेरे बन्द कमरों से बाहर निकाला और उसे युगों के रोमानी ऐन्द्रजालिक सम्मोहन से उबारकर एक नए दौर के साथ जोड़कर दिखाया। वस्तुतः मोहन राकेश के नाटक केवल हिन्दी के नाटक नहीं हैं। वे हिन्दी में लिखे अवश्य गए हैं, किन्तु वे समकालीन भारतीय नाट्य प्रवृत्तियों के द्योतक हैं। उन्होंने हिन्दी नाटक को पहली बार अखिल भारतीय स्तर प्रदान किया और सदियों के अलग-थलग प्रवाह को विश्व नाटक की एक सामान्य धारा की ओर भी अग्रसर किया। प्रमुख भारतीय निर्देशकों इब्राहीम अलकाज़ी, ओम शिवपुरी, अरविन्द गौड़, श्यामानन्द जालान, रामगोपाल बजाज और दिनेश ठाकुर ने मोहन राकेश के नाटकों का निर्देशन किया।

'आषाढ़ का एक दिन'

मुख्य लेख : आषाढ़ का एक दिन -मोहन राकेश

राकेश जी की सबसे बड़ी उपलब्धि उनका नाटक "आषाढ़ का एक दिन" थाजिसने नाटकों को एक नया आयाम दिया। 'आषाढ़ का एक दिनसन 1958 में प्रकाशित और नाटककार मोहन राकेश द्वारा रचित एक हिन्दी नाटक है। कभी-कभी इसे हिन्दी नाटक के आधुनिक युग का प्रथम नाटक कहा जाता है। सन 1959 में इसे वर्ष का सर्वश्रेष्ठ नाटक होने के लिए 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कारसे भी सम्मानित किया गया था। कई प्रसिद्ध निर्देशक इस नाटक को मंच पर ला चुके हैं। 1979 में निर्देशक मणि कौल ने इस पर आधारित एक फ़िल्म बनाई, जिसने आगे जाकर साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' भी जीत लिया। 'आषाढ़ का एक दिन' महाकवि कालिदास के निजी जीवन पर केन्द्रित है, जो 100 ई. पू. से 500 ईसवी के अनुमानित काल में व्यतीत हुआ। इस नाटक का शीर्षक कालिदास की कृति 'मेघदूतम्की शुरुआती पंक्तियों से लिया गया है, क्योंकि अषाढ़ का महीना उत्तर भारत में वर्षा ऋतु का शुरुआती महिना होता है, इसका सीधा अर्थ "वर्षा ऋतू का एक दिन" हैं।[2] मोहन राकेश द्वारा रचित 'आषाढ़ का एक दिन' एक त्रिखंडीय नाटक है। इसमें सफलता और प्रेम में से एक को चुनने के संशय से जूझते कालिदास, एक रचनाकार और एक आधुनिक मनुष्य के मन की पहेलियों को रखा गया है। वहीं प्रेम में टूटकर भी प्रेम को नहीं टूटने देने वाली इस नाटक की नायिका मल्लिका के रूप में हिन्दी साहित्य को एक न भूलने वाला योग्य पात्र मिला है।

कथन

'आषाढ़ का एक दिन' नाटक के प्रकाशन के बाद हिन्दी नाटक और रंगमंच में राकेश जी ने और भी कई महत्त्वपूर्ण कार्य किए। वे अपने नाटक 'आषाढ़ का एक दिन' की भूमिका में कहते है कि "हिन्दी रंगमंच की हिन्दी भाषी प्रदेश की सांस्कृतिक पूर्तियों और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करना होगा, रंगों और राशियों के विवेक को व्यक्त करना होगा हमारे दैनदिन जीवन के रागरंग को प्रस्तुत करने के लिए हमारे संवेदों और स्पदंनों को अभिव्यक्त करने के लिए जिस रंगमंच की आवश्यकता है, वह पाश्चात्य रंगमंच से कहीं भिन्न होगा।"[4] राकेश जी को हिन्दी में नये रंग नाटकों का पुरोधा कहा जा सकता है। उनको नाटक की भाषा विषय पर कार्य करने के लिए 'नेहरू फ़ैलोशिप' प्राप्त हुई थी, किन्तु असमय मृत्यु हो जाने के कारण यह काम पूरा नहीं हो सका।

समकालीन लेखक

मोहन राकेश ने हिन्दी नाटक को नई ज़मीन पर खड़ा कर दिया जो उन्होंने स्वयं ने ज़मीन तलाशी थी। उनके पूर्ववर्ती प्रयोगधर्मी नाट्यकारों- लक्ष्मीनारायण, जगदीशचन्द्र माथुर, उपेन्द्रनाथ अश्क, लक्ष्मीनारायण लाल, धर्मवीर भारती आदि ने जिस विश्वजनीन चेतना को अग्रसर किया था, उसका विकास क्रम मोहन राकेश में देखा जा सकता है और जिन्हें हम आधुनिक भाव बोध का नाम भी दे सकते हैं। इसमें हमने यथार्थवाद, प्रकृतिवाद, प्रतीकवाद, अभिव्यक्तिवाद, एपिक थियेटर या अतियथार्थवाद या असंगतवाद आदि अनेक मत-मतान्तरों में देखा है.  

प्रमुख कृतियाँ

मोहन राकेश ने मुख्यत: नाटक और उपन्यास लिखे। नाटक और उपन्यास के अतिरिक्त उन्होंने कुछ संस्कृत नाटकों और विदेशी उपन्यासों का अनुवाद भी किया। इनकी मुख्य रचनाएँ इस प्रकार हैं-

उपन्यास

नाटक

कहानी संग्रह

निबंध संग्रह

अनुवाद

  • अँधेरे बंद कमरे
  • अन्तराल
  • न आने वाला कल
  • आषाढ़ का एक दिन
  • लहरों के राजहंस
  • आधे अधूरे
  • क्वार्टर तथा अन्य कहानियाँ
  • पहचान तथा अन्य कहानियाँ
  • वारिस तथा अन्य कहानियाँ।
  • परिवेश
  • एकत्र - असंकलित तथा अप्रकाशित रचनाएं
  • आखिरी चट्टान तक (यात्रा-वृत्त) तथा डायरी।
  • मृच्छकटिकम
  • शाकुंतलम

सम्मान और पुरस्कार

वर्ष 1968 में मोहन राकेश को 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था।

निधन

हिन्दी साहित्य जगत को नई ऊँचाई देने वाले मोहन राकेश का 3 जनवरी, 1972 को नई दिल्ली में आकस्मिक निधन हुआ।


विजय कुमार मल्होत्रा
पूर्व निदेशक (राजभाषा),
रेल मंत्रालय,भारत सरकार

Vijay K Malhotra
Former Director (OL),
Ministry of Railways,
Govt. of India

नयी कहानी के प्रवर्तक कौन है?

मोहन राकेश हिंदी साहित्य के उन चुनिंदा साहित्यकारों में हैं जिन्हें ''नयी कहानी आंदोलन'' का नायक माना जाता है और साहित्य जगत में अधिकांश लोग उन्हें उस दौर का ''महानायक'' कहते हैं।

नई कहानी का प्रारंभ कब हुआ?

नयी कहानी का जन्म 1956 से माना जाता है। 1956 में भैरव प्रसाद गुप्त के संपादन में नयी कहानी नाम की पत्रिका का एक विशेषांक निकाला। इसी विशेषांक के आधार पर अगली कड़ी की कहानियों को नयी कहानी के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा।

नई कहानी आंदोलन क्या है?

शिल्प और कथ्य दोनों ही दृष्टियों से इस नयेपन ने पाठकों आलोचकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। आगे 1960 ई. के तर्ज पर नयी कहानी आंदोलन का नाम चल पड़ा जिसे 'नयी कहानियाँ' ने आगे बढ़ाया । हिन्दी में कहानी की एक पुष्ट समर्थ और स्वस्थ परंपरा है और वर्तमान कहानी उसका ही एक विकसित रूप है ।

नई कहानी आंदोलन के प्रमुख हस्ताक्षर कौन थे?

मोहन राकेश (८ जनवरी १९२५ - ३ दिसम्बर, १९७२) नई कहानी आन्दोलन के सशक्त हस्ताक्षर थे

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