फूलों को एकत्र करके रसायन विधि से इत्र निकाला जाता है। इत्र या अतर मुख्य रूप से अरबी भाषा के शब्द औत्र से बना है। इस शब्द का अर्थ खुशबू है। सिंधु घाटी सभ्यता में भी इत्र बनाने के पात्र का साक्ष्य मिलता है। इत्र बनाने के लिए खुशबूदार पौधों की लकड़ियों और फूलों को तेल में डालकर आवसन विधि से इन्हे इत्र में परिवर्तित कर देते हैं। [1][2] जैसा कि हम जानते है , कि इत्र हमारे देश मे व्याप्त है यह हमारे देश मे कई वर्ष से चला आ रहा है क्योकि अब हर जगह रासायनिक इत्र ( सेण्ट ) आदि फैल रहे है जिससे इत्र की माग खत्म हो चुकी है 5
सन्दर्भ[संपादित करें]
- ↑ Strathern, Paul (2000). Mendeleyev's Dream – The Quest For the Elements. New York: Berkley Books. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-425-18467-6.
- ↑ Levey, Martin (1973). Early Arabic Pharmacology: An Introduction Based on Ancient and Medieval Sources. Brill Archive. पृ॰ 9. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 90-04-03796-9.
विषयसूची
इत्र बनाने में किसका प्रयोग किया जाता है?
इसे सुनेंरोकेंइत्र बनाने के लिए खुशबूदार पौधों की लकड़ियों और फूलों को तेल में डालकर आवसन विधि से इन्हे इत्र में परिवर्तित कर देते हैं।
इत्र का कारोबार क्या है?
इसे सुनेंरोकेंकरीब एक हजार करोड़ का है सुगंध का कारोबार यूरोप और खाड़ी देशों में निर्यात होने से इत्र कारोबार लगातार चल रहा है। विदेशों की कई कंपनियां यहां के कारोबारियों से खुद इत्र की बड़ी खेप मंगवाती हैं। इत्र बिजनेस का सालाना टर्नओवर करीब एक हजार करोड़ का बताया जाता है।
परफ्यूम में क्या मिलाया जाता है?
इसे सुनेंरोकेंपरफ्यूम को बनाने में शराब का काफी इस्तेमाल किया जाता है और हर तरह के परफ्यूम में अल्कोहल जरूर पाई जाती है. हालांकि हर परफ्यूम में अल्कोहल की मात्रा अलग-अलग होती है. परफ्यूम को बनाने में फूलों के रस का इस्तेमाल किया जाता है और परफ्यूम की बोतल में 15 से लेकर 30 प्रतिशत तक फूलों का रस डाला जाता है.
इत्र बनाने की विधि को क्या कहते हैं?
इसे सुनेंरोकेंइत्र बनाने की प्रक्रिया वही पारंपरिक है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह विधि फारस से आयातित है। मगर इतिहासकार बताते हैं कि भाप पद्धति से इत्र निर्माण की यह विधि सिंधु घाटी सभ्यता में प्रचलित थी। इसे ‘देग भापका’ पद्धति कहते हैं।
गुलाब का इत्र से क्या होता है?
इसे सुनेंरोकेंप्रतिदिन घर से निकलने वक्त अपनी नाभि में चंदन, गुलाब व मोगरे का इत्र लगाएं, इससे संपन्नता और वैभव बढ़ता जाएगा। चंदन व मोगरे का इत्र नाभि में लगाने से माइग्रेन, सिरदर्द, क्रोध और नींद से संबंधित समस्याएं छू मंतर हो जाती हैं। हाथ के नाखुनों पर इत्र लगाने से पेट संबंधित रोगों से निजात मिलती है।
भारत का सबसे महंगा परफ्यूम कौन सा है?
इसे सुनेंरोकेंपहले सबसे महंगे परफ्यूम की कीमत थी 89 लाख रुपए गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स के अनुसार, सबसे महंगा परफ्यूम क्लाइव क्रिश्चियन नंबर 1 इंपीरियल मैजेस्टी है। 2005 में 10 बोतल को रिलीज किया गया था। एक बोतल में 500 मिलीलीटर परफ्यूम था, जिसकी कीमत करीब 89 लाख रुपए (205000 डॉलर) थी।
परफ्यूम सेंट कैसे बनता है?
इसे सुनेंरोकेंकई इत्र प्राकृतिक अवयवों से सुगंधित तेल निकालकर बनाए जाते हैं। इन सामग्रियों में विभिन्न पौधे, फल, लकड़ी और यहां तक कि पशु स्राव शामिल हो सकते हैं। ऐसी गंधों के लिए जो प्रकृति में नहीं होती हैं या आवश्यक तेलों द्वारा उत्पादन नहीं हो पाता हैं, गंध का अनुकरण करने के लिए सिंथेटिक रसायनों का उपयोग किया जाता है।
परफ्यूम में कौन सी गैस होती है?
इसे सुनेंरोकेंCO2(सी ओ टू)।
फारसवाली इस विधि में देग में निश्चित मात्रा में फूल या औषधि रखी जाती है और निश्चित अनुपात में पानी डाल कर ढंक कर उसे फिर मिट्टी के लेप से सीलबंद किया जाता है। अब देग को हल्की आंच देकर अंदर के पानी को खौलाया जाता है।
इत्र बनाने की प्रक्रिया वही पारंपरिक है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह विधि फारस से आयातित है। मगर इतिहासकार बताते हैं कि भाप पद्धति से इत्र निर्माण की यह विधि सिंधु घाटी सभ्यता में प्रचलित थी। इसे ‘देग भापका’ पद्धति कहते हैं। इस देग भापका के बर्तन, जो सिंधु घाटी सभ्यता में टेराकोटा के बने होते थे, इनके अवशेष लाहौर के तक्षिला संग्रहालय में सुरक्षित है। खैर, यह बहस से कहीं ज्यादा विचार चिंतन का विषय है, लेकिन यह तय है कि इस पुरानी विधि में किसी तरह के खतरनाक रसायन का प्रयोग नहीं किया जाता- यही सच है। क्योंकि हमारे पूर्वजों ने खतरनाक रसायनों की खोज को लेकर कोई रुचि दिखाई नहीं और जो रसायन जैसे भी थे उनके बारे में जानकार पूरी हिदायत के साथ उनका उपयोग किया या उनसे परहेज किया।
कन्नौज के इत्र कारखानों में धातु के बर्तनों के जरिए गुलों की आत्मा को कैद करने का नजारा सच में बेहद मजेदार है। इन कारखानों में बड़े-बड़े चूल्हों पर तांबे के बड़े बड़े देग कतारबद्ध मिलते हैं। उन देगों में फूल और अन्य सुगंधित पदार्थ डालते लोग मिलते हैं और कहीं उन पदार्थों को डाल कर देग में पानी डालते कारीगर मिलेंगे। जिसने पानी डाल लिया हो वह भी निश्चिंत, खाली हाथ खड़ा नहीं मिलता, बल्कि उन पदार्थों को पानी में खौलाने के लिए खासी मेहनत करनी पड़ती है।
फारसवाली इस विधि में देग में निश्चित मात्रा में फूल या औषधि रखी जाती है और निश्चित अनुपात में पानी डाल कर ढंक कर उसे फिर मिट्टी के लेप से सीलबंद किया जाता है। अब देग को हल्की आंच देकर अंदर के पानी को खौलाया जाता है। देग से भाप को दूसरे छोर पर बर्तन में जमा करने के लिए बांस से बनी नली व्यवहार में लाई जाती है। जिस बर्तन में वाष्प जमा किया जाता है उसे पानी मे डुबो कर रखा जाता है। वाष्पीकरण की यह प्रक्रिया उपले और लकड़ी की मद्धिम आंच में पूरी की जाती है। प्रक्रिया की पूरी अवधि लगभग बारह घंटे की होती है। इसमें इस बात का ध्यान रखा जाता है कि चूल्हे की आंच समान हो। आंच के लिए गोबर के उपले और सूखी लकड़ियां व्यवहार में लाई जातीं हैं।
साधारण से दिखने वाले ये कारीगर इत्र निर्माण के हर चरण को बेहद सब्र के साथ पूरा करते हैं। तो वाष्पीकरण की इस धीमी प्रक्रिया में बर्तनों से निकलती भाप को एक नली के जरिए चंदन के तेल के संपर्क में लाया जाता है, यानी चंदन तेल तांबे के बर्तनों में रखा जाता है। और फिर उससे जब भाप निकलती है तो उसमें आॅयल बेस होता है जिसे कंडेंसर में डाला जाता है। वाष्पित पदार्थ जिस बर्तन में जमा किया जाता है वह पानी में डुबो कर रखा जाता है, ताकि इत्र बनने की प्रकिया में कोई बाधा न पहुंचे। तो, इतना आसान नहीं होता जब कोई इत्रवाला अपनी उंगलियों से रूई लगी बारीक तीलियों को विभिन्न क्रिस्टल शीशियों में रखे इत्र में डुबो कर खुशबू के कई नमूने आपके सामने पेश करता है- और देखते ही देखते खुशबू में भीग कर हम जादू में बंध जाते हैं। यह जादू जरूर है, लेकिन दूसरी दुनिया की मायावी आत्माओं की नेमत नहीं, बल्कि हुनरमंद हाथों से उपजे फूलों और उन फूलों से खुशबू निकाल कर शीशियों में भरते हैं।
कन्नौज के कई परिवारों ने इत्र के कारोबार में पीढ़ियों से जो रंगत दी है, उससे न सिर्फ परफ्यूम के कारोबार से हजारों परिवार अपनी आजीविका चलाते रहे हैं, बल्कि फूलों की खेती का काम कई पुश्तों से उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और खासकर उत्तर प्रदेश के अनगिनत परिवार करते चले आ रहे हैं। यानी इत्र के कारोबार से जुड़े अन्य कई सुकुमार या कोमल कहे जाने वाले कारोबार हैं, जिनसे हजारों परिवारों की आजीविका चलती है। इनमें फूलों की खेती का काम है। इत्र के कारोबार को जिंदगी और ताकत देने वाले इत्र उद्योग में गुलाब का खास स्थान है और गुलाब की कोमल पंखुड़ियां ज्यादा देर तक अपनी आर्द्रता रखने में कमजोर होती हैं। इसलिए, गुलाब के लिए आसपास के इलाकों में इसकी खेती मायने रखती है। पर हाल के सालों में फूलों की खेती पर मौसम की मार का असर दिखने लगा है।
सबसे ज्यादा मार गुटखा उद्योग पर कसे गए शिकंजे की वजह से पड़ रही है। इत्र कारोबार की पूछ विदेशी मंडियों में कम हुई, तो भी इसके कारोबारियों पर बहुत असर नहीं पड़ा, क्योंकि क्योंकि पान-तंबाकू में व्यवहृत सुगंधि में इस उत्पाद की अस्सी फीसद खपत थी। लेकिन सरकार ने गुटखा प्रतिबंध लगा दिया है। मतलब आने वाले सालों में तकरीबन दस हजार करोड़ रुपए के कारोबार पर कहीं ताला न लग जाए, ऐसी आशंका व्यक्त की जाने लगी है।