हिंदी गद्य के उद्भव और विकास से क्या अभिप्राय है? - hindee gady ke udbhav aur vikaas se kya abhipraay hai?

गद्य काव्य का उद्भव और विकास 
अथवा
गद्य साहित्य का उद्भव और विकास 

गद्य शब्द गद् धातु (गद् वक्तायां वाचि) से यत् प्रत्यय लगाकर निष्पन्न होता है। इसका सूक्ष्म अर्थ है भावों की अभिव्यक्ति की स्पष्ट प्रक्रिया। दीर्घकाल पर्यन्त गद्य अपने मूल स्वरूप में रहा। कालान्तर में इसमें काव्यात्मक रूप आ गया जिसमें पद्यकाव्यवत् कुछ विशेषताएं सम्मिलित हो गयीं यथा अलङ्कार सौष्ठव, सरस पदावली, समासयुक्त शैली, भावगत चमत्कृति, रसगत चमत्कार आदि। गद्य के इस काव्यशास्त्रीय / साहित्यशास्त्रीय स्वरूप को गद्यकाव्य कहा जाने लगा। काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों के समावेश सहित जब गद्य का विकास होने लगा तो गद्यकाव्य की रचनाएं इतनी जटिल होने लगीं कि अष्टम शताब्दी में तो गद्य रचना करना कवि की कुशलता के परीक्षण की कसौटी बन गया इसीलिये कहा भी गया है गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति । संस्कृत भाषा में गद्य साहित्य का अपना अलग ही वैशिष्ट्य है। गद्य का प्रथमतया प्रयोग विधा के रूप में संस्कृत में ही हुआ है। संस्कृत गद्य का वैशिष्ट्य है सार में अपनी बात कह देना किसी विचार को अन्य भाषा में कहने के लिए लम्बे वाक्य की अपेक्षा रहती है जबकि संस्कृत में अल्पसमासा अथवा दीर्घसमासा शैली के माध्यम से एक पद में ही कहा जा सकता है।

गद्यकाव्य का प्रथमतया अवतरण देववाणी संस्कृत में ही हुआ है। वैदिक संहिताओं को सम्पूर्ण विश्व की प्रथम पुस्तक कहा गया है। मैक्समूलर ने भी यह बात कही है कि इस विश्व की लाइब्रेरी की प्रथम पुस्तक वेद है और यजुर्वेद संहिता में गद्य का प्रथम बार प्रयोग निर्विरोध स्वीकृत है। यजुर्वेद में गद्य का भाग पद्य से किंचित् भी न्यून नहीं है। वेद की अन्य काठक, मैत्रायणी आदि संहिताओं में भी गद्य का प्रयोग प्रचुरता से देखने को मिलता है। अथर्ववेद का तो छठां भाग पूरा ही गद्यात्मक है। ब्राह्मण ग्रन्थ तो पूर्णतया गद्यमय ही प्राप्त है। यज्ञ यागादि वर्णन में प्रक्रिया वर्णन होने के कारण गद्य ही उसकी प्रस्तुति का सरल एवं सटीक माध्यम हो सकता है।

अतः वैदिक काल से ही गद्य का उद्भव माना जाता है।

काल के अनुसार संस्कृत गद्य का विभाजन वैदिक गद्य, पौराणिक गद्य, शास्त्रीय गद्य तथा साहित्यिक गद्य के रूप में देखा जा सकता है। ‘वैदिक गद्य’ वेदों में पाए जाने वाले गद्य खंडों से संबंधित है, ‘पौराणिक गद्य’ पुराणों से संबंधित है, ‘शास्त्रीय गद्य’ में दर्शन शास्त्र आदि माने जाते है तथा ‘साहित्यिक गद्य’ का प्रारम्भ ऐतिहासिक गद्यकाव्य की आधारभूत आख्यिकाओं से माना जाता है।

साहित्यिक गद्य में कुछ प्रमुख आख्यिकाओं वासवदत्ता, सुमनोत्तरा, भैमरथी आदि के पश्चात कथा एवं सूक्तियां भी देखने को मिलती है। साहित्यिक गद्य का उत्कृष्ट उदाहरण रुद्रदामन के गिरनार शिलालेख में प्राप्त है।

साहित्यिक गद्य का विकसित रूप दण्डी, सुबन्धु,बाणभट्ट,अम्बिकदत्त व्यास आदि की उत्कृष्ट रचनाओं में देखा जा सकता है।

दण्डी 

दण्डी ने दशकुमारचरित के रूप में एक अद्भुत कथा-काव्य दिया है। दण्डी का समय विवादास्पद है, किन्तु अधिकांश विद्वान् इनका काल छठीं शताब्दी मानते हैं। परम्परा से दण्डी के तीन ग्रन्थ प्रामाणिक माने जाते हैं। इनमें दूसरा ग्रन्थ काव्यादर्श और तीसरा अवन्तिसुन्दरीकथा है। इस तीसरे ग्रन्थ के रचयिता के विषय में कुछ विवाद है। दशकुमारचरित अव्यवस्थित रूप में मिलता है। इसके तीन भाग प्राप्त हैं— पूर्वपीठिका (पाँच उच्छ्वास), मूलभाग (आठ उच्छ्वास) तथा उत्तरपीठिका (एक उच्छ्वास) । मूलभाग में आठ कुमारों की कथा का वर्णन है। पूर्वपीठिका को मिलाकर दस कुमारों की कथा पूरी हो जाती है। तीनों भागों की शैली में थोड़ा भेद दिखाई पड़ता है।

दशकुमारचरित का कथानक घटना प्रधान है, जिसमें अनेक रोमांचक घटनाएँ पाठकों को विस्मय और विषाद के बीच ले जाती हैं। कहीं भयंकर जंगल में घटनाक्रम पहुँचाता है, तो कहीं समुद्र में जहाज टूटने पर कोई तैरता हुआ मिलता है। घटनाएँ और विषय-वर्णन दोनों ही समान रूप से दण्डी के लिए महत्त्व रखते हैं। कथावस्तु कहीं भी वर्णनों के क्रम में अवरूद्ध नहीं होती। दण्डी के चित्रण में सामान्य समाज की प्रधानता है। जिसमें निम्न कोटि का जीवन बिताने वाले धूर्त, जादूगर, चालाक, चोर, तपस्वी, सिंहासनच्युत राजा, पतिवञ्चक नारी, ठगने वाली वेश्याएँ, ब्राह्मण, व्यापारी और साधु दण्डी का हास्य और व्यंग्य भी उच्च कोटि का है। दण्डी अपने वर्णनों में कहीं सहज और कहीं गम्भीर प्रतीत होते हैं।

दण्डी की सबसे बड़ी विशेषता सरल और व्यावहारिक किन्तु ललित पदों से युक्त गद्य लिखने में है। वे लम्बे समासों, कठोर ध्वनियों और शब्दाडम्बर से दूर रहते हैं। भाषा के प्रयोग में ऐसी स्वाभाविकता किसी अन्य गद्य कवि में नहीं मिलती। दण्डी का पद लालित्य संस्कृत आलोचकों में विख्यात है— दण्डिनः पदलालित्यम्। दशकुमारचरित की विषयवस्तु भी किसी आधुनिक रोमांचकारी उपन्यास से कम रोचक नहीं है।

सुबन्धु 

बाणभट्ट ने हर्षचरित की प्रस्तावना में वासवदत्ता को कवियों का दर्पभंग करने वाली रचना कहा है। इसी प्रकार कादम्बरी को उन्होंने दो कथाओं (वासवदत्ता तथा बृहत्कथा) से उत्कृष्ट कहा है। इससे ज्ञात होता है कि सुबन्धु बाण से पहले हो चुके थे। वासवदत्ता सुबन्धु की उत्कृष्ट गद्य रचना है, इसमें कथानक बहुत संक्षिप्त है। राजकुमार कन्दर्पकेतु स्वप्न में अपनी भावी प्रियतमा को देखता है और अपने मित्र के साथ उसकी खोज में निकल जाता है। वह विन्ध्यावटी में एक मैना के मुख से वासवदत्ता का वृत्तान्त सुनता है। उधर वासवदत्ता भी स्वप्न में कन्दर्पकेतु को देखकर उसके प्रति प्रेमासक्त हो जाती है। दोनों पाटलिपुत्र में मिलते हैं। प्रेमी युगल जादू के घोड़े पर चढ़कर भाग जाते हैं और विंध्याचल में पहुँचकर सो जाते हैं। राजकुमार जब जागता है, तब वासवदत्ता को नहीं पाता। बहुत ढूँढ़ने के बाद वह एक प्रतिमा को देखता है। स्पर्श करते ही प्रतिमा वासवदत्ता बन जाती है। बाद में दोनों का विवाह हो जाता है।

इस संक्षिप्त कथानक को विस्तृत वर्णन और कल्पनाशक्ति से सुबन्धु बहु फैलाते हैं। उनका लक्ष्य रोचक और सरस कथा का आख्यान नहीं है, अपितु वे वर्णन - कौशल से चमत्कार उत्पन्न कर गौरव अर्जित करना चाहते हैं। नायक-नायिका के रूप का वर्णन करने में, उनके गुण-गान में, उनकी तीव्र विरह वेदना, मिलन की आकांक्षा और संयोग- दशा के चित्रण में सुबन्धु ने पर्याप्त शक्ति लगाई है। इस कार्य में सुबन्धु के व्यापक अनुभव तथा पाण्डित्य ने बड़ी सहायता की है।

बाणभट्ट 

संस्कृत गद्य साहित्य में सर्वाधिक प्रतिभाशाली गद्यकार बाण ही हैं। इनके विषय में अन्य संस्कृत कवियों की अपेक्षा अधिक जानकारी प्राप्त होती है। हर्षचरित के आरम्भ में इन्होंने अपना और अपने वंश का पूरा विवरण दिया है। इनकी प्रमुख रचनाएं हर्षचरितम् तथा कादम्बरी है।

हर्षचरितम् 

हर्षचरितम् एक आख्यायिका काव्य है। गद्यकाव्य के उस भेद को आख्यायिका कहते हैं, जिसमें किसी ऐतिहासिक पुरुष या घटनाओं का वर्णन किया जाता है। हर्षचरित आठ उच्छ्वासों में विभक्त है। आरम्भिक ढाई उच्छ्वासों में बाण ने अपने वंश का तथा अपना वृत्तान्त दिया है। राजा हर्षवर्द्धन की पैतृक राजधानी स्थाण्वीश्वर का वर्णन कर वे हर्षवर्द्धन के पूर्वजों का वर्णन करते हैं। इसके बाद राजा प्रभाकरवर्द्धन के पूरे जीवन का विवरण देकर वे राज्यवर्द्धन, हर्षवर्द्धन तथा राज्यश्री इन तीनों भाई-बहन के जन्म का भी रोचक वृत्तान्त देते हैं। पञ्चम उच्छ्वास से इस परिवार के संकटों का आरम्भ होता है। प्रभाकरवर्द्धन की मृत्यु, राज्यश्री का विधवा होना, राज्यवर्द्धन की हत्या, राज्यश्री का विन्ध्याटवी में पलायन, हर्षवर्द्धन द्वारा उसकी रक्षा- ये सभी घटनाएँ क्रमश: वर्णित हैं। दिवाकरमित्र नामक बौद्ध संन्यासी के आश्रम में हर्षवर्द्धन व्रत लेता है कि दिग्विजय के बाद वह बौद्ध हो जाएगा। यहीं हर्षचरित का कथानक समाप्त हो जाता है।

बाण ने हर्ष की प्रारंभिक जीवनी ही लिखी, उसके राज्य संचालन की घटनाओं का उल्लेख नहीं किया है। बाण की भेंट हर्ष से तब हुई थी, जब हर्ष समस्त उत्तर भारत का सम्राट् था, इसलिए यह समस्या बनी हुई है कि बाण ने हर्ष का पूरा जीवनचरित क्यों नहीं लिखा। उन्होंने हर्षवर्द्धन की विशेषताएँ तो बतलाई हैं, उसके साहसिक कार्यों का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी प्रारम्भ में ही किया है, किन्तु उसके राज्यकाल की प्रमुख घटनाओं का क्रमबद्ध रूप से वर्णन नहीं किया। इतिहास का संक्षिप्त रूप यहाँ काव्य के विशाल आवरण से ढक गया है।

कादम्बरी 

यह कवि-कल्पित कथानक पर आश्रित होने के कारण कथा नामक गद्यकाव्य है। उच्छ्वास, अध्याय आदि में इसका विभाजन नहीं किया गया है। पूरी कथा का दो-तिहाई भाग ही बाण ने लिखा । इसका एक-तिहाई भाग उनके पुत्र ने लिखकर जोड़ा, जो अपने पिता के अपूर्ण ग्रन्थ से दुःखी था। कादम्बरी की कथा एक जन्म से सम्बद्ध न होकर चन्द्रापीड (नायक) तथा पुण्डरीक (उसका मित्र) के तीन जन्मों से सम्बन्ध रखती है। आरम्भ में विदिशा के राजा शूद्रक का वर्णन है। उसकी राजसभा में चाण्डाल कन्या वैशम्पायन नामक एक मेधावी तोते को लेकर आती है। यह तोता राजा को अपने जन्म और जाबालि के आश्रम में अपने पहुँचने का वर्णन सुनाता है। जाबालि ने तोते को उसके पूर्व जन्म की कथा सुनाई थी। तदनुसार राजा चन्द्रापीड और उसके मित्र वैशम्पायन की कथा आती है। चन्द्रापीड दिग्विजय के प्रसंग में हिमालय में जाता है, जहाँ अच्छोद सरोवर के निकट महाश्वेता के अलौकिक संगीत से आकृष्ट होता है। वहाँ कादम्बरी से उसकी भेंट होती है और वह उसके प्रति आसक्त हो जाता है। महाश्वेता एक तपस्वी कुमार पुण्डरीक के साथ अपने अधूरे प्रेम की कहानी सुनाती है। उसी समय चन्द्रापीड अपने पिता तारापीड के द्वारा उज्जैन बुला लिया जाता है, किन्तु वह वियोगजन्य व्यथा से पीड़ित रहता है। पत्रलेखा से कादम्बरी का समाचार सुनकर वह प्रसन्न होता है। यहीं बाण की कादम्बरी समाप्त हो जाती है। महाश्वेता वैशम्पायन को तोता बनने का शाप देती है। यह वैशम्पायन चन्द्रापीड का मित्र है, शाप के बाद वह मर जाता है। इससे चन्द्रापीड भी दुःखी होकर मर जाता है। महाश्वेता तथा कादम्बरी, राजकुमार के शरीर की रक्षा करती हैं। अन्त में सभी को जीवन प्राप्त होता है।

कादम्बरी में कथा को ही नहीं, वर्णनों को भी बाण ने अपनी कल्पनाशक्ति से फैलाया है। इसमें सभी स्थल बाण की लोकोत्तर शक्ति तथा वर्णन क्षमता का परिचय देते हैं।

काव्यशास्त्र के सभी उपादानों (रस, अलंकार, गुण एवं रीति) का औचित्यपूर्ण प्रयोग करने के कारण कादम्बरी बाण की उत्कृष्ट गद्य रचना है। इसमें विषय की आवश्यकता के अनुसार वर्णन शैली अपनाई गई है। इसलिए उनकी शैली को पाञ्चाली कहा जाता है, जिसमें शब्द और अर्थ का समान गुम्फन होता है। बाण ने पात्रों का सजीव निरूपण किया है, रस का समुचित परिपाक दिखाया है और मानव-जीवन के सभी पक्षों पर दृष्टि रखी है। इसलिए आलोचकों ने एक स्वर से कहा है कि बाणोच्छिष्टं जगत्सर्वम् । अर्थात् उनके वर्णन से कुछ भी नहीं बचा है। कादम्बरी में मन्त्री शुकनास ने राजकुमार चन्द्रापीड को जो विस्तृत उपदेश दिया है, वह आज भी तरुणों के लिए मार्गदर्शक है।

अंबिकादत्त व्यास 

अंबिकादत्त व्यास की रचना 'शिवराजविजय' एक आधुनिक गद्यकाव्य है, जो महान् देशभक्त शिवाजी के जीवन की प्रमुख घटनाओं पर आधारित आधुनिक उपन्यास की शैली में लिखा गया है। इसके लेखक पं. अम्बिकादत्त व्यास (1858-1900 ई.) हैं। व्यास जी मूलत: जयपुर (राजस्थान) के निवासी थे, किन्तु उनका कार्यक्षेत्र बिहार था। शिवराजविजय का कथानक ऐतिहासिक है, जिसमें कवि ने कल्पना का भी प्रचुर प्रयोग किया है। इससे घटनाएँ गतिशील और प्रभावशाली हो गई हैं। व्यास जी की भाषा-शैली में प्रसादगुण, कथा-प्रवाह और कल्पना की विशदता मिलती है। विषयवस्तु की दृष्टि से यह गद्यकाव्य शिवाजी और औरंगजेब के सङ्घर्ष की घटनाओं पर आश्रित है। यशवन्त सिंह, अफजल खाँ आदि कई ऐतिहासिक पात्रों को इसमें चित्रित किया गया है। शिवाजी भारतीय आदर्श, संस्कृति तथा राष्ट्रशक्ति के रक्षक के रूप में दिखाए गए हैं। उनका ऐतिहासिक व्यक्तित्व इस गद्यकाव्य में पूर्णत: चित्रित है। इसमें जहाँ-तहाँ फारसी के शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। पूरी रचना 12 निःश्वासों में विभक्त है। यह आधुनिक गद्य साहित्य का गौरव ग्रन्थ है।

इन प्रमुख गद्य रचनाओं के पश्चात और भी बहुत सी रचनाएं हुई है। इस प्रकार से संस्कृत के गद्य साहित्य अथवा गद्य काव्य के उद्भव और विकास को समझा जा सकता है।

Sanskrit Sahitya Gyan💯
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हिंदी गद्य का उद्भव और विकास कैसे हुआ?

हिन्दी में गद्य का विकास १९वीं शताब्दी के आसपास हुआ। इस विकास में कलकत्ता के फोर्ट विलियम कॉलेज की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। इस कॉलेज के दो विद्वानों लल्लूलाल जी तथा सदल मिश्र ने गिलक्राइस्ट के निर्देशन में क्रमश: प्रेमसागर तथा नासिकेतोपाख्यान नामक पुस्तकें तैयार कीं।

हिंदी गद्य से आप क्या समझते है?

सामान्यत: मनुष्य की बोलने या लिखने पढ़ने की छंदरहित साधारण व्यवहार की भाषा को गद्य (prose) कहा जाता है। इसमें केवल आंशिक सत्य है क्योंकि इसमें गद्यकार के रचनात्मक बोध की अवहेलना है। साधारण व्यवहार की भाषा भी गद्य तभी कही जा सकती है जब यह व्यवस्थित और स्पष्ट हो।

हिंदी गद्य के विकास में प्रमुख विधाओं का क्या योगदान रहा?

एवं सदल मिश्र के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। हरिश्चन्द्र नई क्रांति का सूत्रपात कर रहे थे। शैली की गंभीरता का सर्वोत्कृष्ट रूप दृष्टिगोचर होता है. वहाँ जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की शैली में गद्य की सरसता, चित्रात्मकता एवं कलात्मकता के श्रेष्ठ उदाहरण उपलब्ध होते हैं।

हिंदी गद्य के प्रारंभिक लेखक कौन है?

श्याम सुंदर दास के मतानुसार 'हिन्दी के प्रारंभिक गद्य लेखकों में पहला स्थान इंशाअल्ला खां, दूसरा स्थान सदल मिश्र और तीसरा स्थान लल्लू जी लाल को मिलना चाहिए'। आरा के मिश्रटोला में कोई डेढ़ सौ साल पहले हिन्दी के सर्वप्रथम गद्य लेखक पं. सदल मिश्र का जन्म हुआ था।

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