हमारे हरि हारिल की लकरी
हमारे हरि हारिल की लकरी।
मन बच क्रम नंदनंद सों उर यह दृढ़ करि पकरी॥
जागत, सोबत, सपने सौंतुख कान्ह-कान्ह जक री।
सुनतहि जोग लगत ऐसो अति! ज्यों करुई ककरी॥
सोई व्याधि हमें लै आए देखी सुनी न करी।
यह तौ सूर तिन्हैं लै दीजै जिनके मन चकरी॥
गोपियाँ कहती हैं हे उद्धव, हमारे लिए तो श्रीकृष्ण हारिल पक्षी की लकड़ी के समान हैं। जैसे हारिल पक्षी जीते जी अपने चंगुल से उस लकड़ी को नहीं छोड़ता ठीक उसी प्रकार हमारे हृदय ने मनसा, वाचा और कर्मणा श्रीकृष्ण को दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया है (यह संकल्प मन, वाणी और कर्म तीनों से है) अतः सोते समय, स्वप्न में तथा प्रत्यक्ष स्थिति में हमारा मन ‘कान्ह’ ‘कान्ह’ की रट लगाया करता है। तुम्हारे योग को सुनने पर हमें ऐसा लगता है जैसे कड़वी ककड़ी। तुम तो हमें वही निर्गुण ब्रह्मोपासना या योग-साधना का रोग देने के लिए यहाँ चले आए। जिसे न कभी देखा और न जिसके बारे में कभी सुना और न कभी इसका अनुभव किया। इस ब्रह्योपासना या योग-साधना का उपदेश तो उसे दीजिए जिसका मन चंचल हो। हम लोगों को इसकी क्या आवश्यकता—हम लोगों का चित्त तो श्रीकृष्ण के प्रेम में पहले ही से दृढतापूर्वक आबद्ध है।
स्रोत :
- पुस्तक : भ्रमरगीत सार (पृष्ठ 80)
- रचनाकार : आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- प्रकाशन : लोकभारती
- संस्करण : 2008
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