हमारे हरि हारिल की लकरी इस पंक्ति में गोपियों की कौन सी भावना व्यक्त हुई है? - hamaare hari haaril kee lakaree is pankti mein gopiyon kee kaun see bhaavana vyakt huee hai?

प्रश्न 1.
गोपियों द्वारा उद्धव को भाग्यवान कहने में क्या व्यंग्य निहित है?
उत्तर:
गोपियों द्वारा उद्धव को भाग्यवान कहने में यह व्यंग्य छिपा हुआ है कि गोपियाँ दिखावे के रूप में उनकी प्रशंसा कर रही हैं, किन्तु व्यंग्य रूप में यह कहना चाहती हैं कि तुम बड़े अभागे हो जो तुम प्रेम का अनुभव ही नहीं कर सके. और न ही किसी को अपना सके। तुमने प्रेम का आनन्द ही नहीं जाना, इसलिए तुमसे बड़ा अभागा और कौन हो सकता है?

प्रश्न 2.
उद्धव के व्यवहार की तुलना किस-किस से की गई है?
उत्तर:
उद्धव के व्यवहार की तुलना जल में रहने वाले कमल के पत्तों से और जल में पड़ी तेल की गगरी से की गयी है, क्योंकि जल में रहकर जिस प्रकार कमल के पत्ते उससे प्रभावित नहीं होते हैं, उसी प्रकार तेल की गगरी पानी में डुबोने पर भी उस पर जल की एक बूंद भी नहीं टिकती है। उद्धव भी इनके समान हैं जो कृष्ण का साथ पाकर भी उनके प्रेम से प्रभावित नहीं हो सके।

प्रश्न 3.
गोपियों ने किन-किन उदाहरणों के माध्यम से उद्धव को उलाहने दिए हैं?
उत्तर:
गोपियों ने निम्नलिखित उदाहरणों के माध्यम से उद्धव को उलाहने दिए हैं

  • उन्होंने कहा कि उनकी प्रेम-भावना की बात उनके मन में ही रह गई है, वे उसे न कृष्ण से कह पायीं और न अन्य किसी से कहने में समर्थ हो सकीं।
  • वे अब तक कृष्ण के आने की प्रतीक्षा में ही जीती रहीं, किन्तु उन्होंने स्वयं न आकर तुम्हारे माध्यम से योग-सन्देश भिजवा दिया, इससे उनकी विरह-व्यथा और बढ़ गयी है।
  • वे कृष्ण से अपनी रक्षा की गुहार लगाना चाह रही थीं, उनसे प्रेम-सन्देश पाने की आकांक्षी हो रही हैं। परन्तु वहीं से योग-सन्देश की धारा को आया देखकर रही-बची चाहना भी धरी की धरी रह गयी।
  • वे कृष्ण से अपेक्षा करती थीं कि वे उनके प्रेम की मर्यादा को रखेंगे, किन्तु उन्होंने योग-सन्देश भेजकर प्रेम की रही-सही मर्यादा को ही तोड़ दिया।

प्रश्न 4.
उद्धव द्वारा दिए गए योग के सन्देश ने गोपियों की विरहाग्नि में घी का काम कैसे किया?
उत्तर:
मथरा जाने पर गोपियाँ यह सोचकर उनकी प्रतीक्षा कर रही थीं कि देर-सवेर कृष्ण लौटकर उनसे मिलने अवश्य आएँगे या फिर वे अपना प्रेम-सन्देश अवश्य भिजवायेंगे। इसी आशा के बल पर वे अपनी प्रेम-व्यथा को सह रही थीं। लेकिन जब प्रेम-सन्देश के स्थान पर उनके पास योग-सन्देश पहुँचा तो निश्चित ही उनकी विरह ज्वाला तीव्रता से भड़क उठी। उद्धव के योग-सन्देश ने उनकी विरहाग्नि में घी का काम करके उसे और बढ़ा दिया।

प्रश्न 5.
‘मरजादा न लही’ के माध्यम से कौनसी मर्यादा न रहने की बात की जा रही है?
उत्तर:
‘मरजादा न लही’ के माध्यम से प्रेम की मर्यादा निभाने की बात कही जा रही है। प्रेम की यही मर्यादा है कि प्रेमी और प्रेमिका दोनों ही अपनी-अपनी ओर से प्रेम को निभाएँ और प्रेम की सच्ची भावना को समझें, क्योंकि प्रेम तो दोनों ओर से पलता है। लेकिन कृष्ण ने प्रेम निभाने की जगह गोपियों के लिए योग-सन्देश भेज दिया, जो एक छलावा था। उसी छलावे को गोपियों ने मर्यादा का उल्लंघन कहा है।

प्रश्न 6.
कृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम को गोपियों ने किस प्रकार अभिव्यक्त किया है?
उत्तर:
गोपियों ने कृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम को निम्नलिखित युक्तियों के माध्यम से व्यक्त किया है-.

  1. उन्होंने स्वयं को कृष्ण रूपी गुड़ में चिपटी हुई चींटियाँ कहा है।
  2. वे अपने आप को हारिल पक्षी के समान मानती हैं, जिसने कृष्ण-प्रेम रूपी लकड़ी को मजबूती से पकड़ – रखा है।
  3. वे मन, वचन और कर्म से कृष्ण को अपने मन में धारण किए हुए हैं।
  4. वे कृष्ण-प्रेम में दीवानी होकर दिन-रात, सोते-जागते कृष्ण नाम को ही रटती रहती हैं।
  5. वे कृष्ण से दूर ले जाने वाले योग-सन्देश को सुनते ही व्यथित हो उठती हैं।

प्रश्न 7.

गोपियों ने उद्धव से योग की शिक्षा कैसे लोगों को देने की बात कही है?
उत्तर:
गोपियों ने उद्धव से कहा कि वे अपने योग की शिक्षा ऐसे लोगों को दें जिनके मन स्थिर नहीं हैं। अर्थात् जिनके मन में भटकाव है, दुविधा है और प्रेम की एकनिष्ठा नहीं है, उनके लिए योग-शिक्षा हितकारी है।

प्रश्न 8.
प्रस्तुत पदों के आधार पर गोपियों का योग-साधना के प्रति दृष्टिकोण स्पष्ट करें।
उत्तर:
पठित पदों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कृष्ण-प्रेम में पगी गोपियाँ योग-साधना को नीरस, व्यर्थ और अवांछित मानती हैं। उनका मानना है कि योग-साधना के बल पर कृष्ण अर्थात् ईश्वर को नहीं पाया जा सकता है। योग-साधना तो कड़वी ककड़ी के समान है। योग-साधना को सुनते ही उनकी विरह-ज्वाला और भड़क उठती है। इसलिए वे कहती हैं कि हम कृष्ण की बुद्धि का बड़प्पन ही मानती हैं कि उन्होंने हमारे लिए योग-सन्देश भेजकर अपनी समझदारी ही दिखाई है। इतना ही नहीं, वे कृष्ण पर आरोप लगाती हुई योग-साधना के क्रम में कहती हैं कि-“हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।”

प्रश्न 9.
गोपियों के अनुसार राजा का धर्म क्या होना चाहिए?
उत्तर:
गोपियों के अनुसार राजा का धर्म यह होना चाहिए कि वह अपनी प्रजा को अन्याय से बचाए। उन्हें सताए जाने से रोके और दु:ख-वेदना से उनकी रक्षा करे।

प्रश्न 10.
गोपियों को कृष्ण में ऐसे कौन-से परिवर्तन दिखाई दिए जिनके कारण वे अपना मन वापस पा लेने की बात कहती हैं?
उत्तर:
गोपियों को अनुभूति हुई कि कृष्ण मथुरा जाने के बाद बदल गये हैं। वे अब हमसे प्रेम नहीं करते हैं। इसलिए उन्होंने न अब तक कोई प्रेम-सन्देश भेजा है और न अब तक हमसे मिलने आए हैं। इसके साथ ही उन्हें यह भी लगा कि वे मथुरा में जाकर अब राजा बन गये हैं और अपनी राजनीतिक चालें चलने लगे हैं, जिसके कारण छल कपट से वे पूरित हो गये हैं। इसीलिए उन्होंने हमें भुलावे में डालने के लिए योग-सन्देश भेजा है। इन परिवर्तनों को देखते हुए गोपियों को लगा कि अब उन्हें कृष्ण-प्रेम में डूबा हुआ अपना मन वापस ले लेना चाहिए।

प्रश्न 11.
गोपियों ने अपने वाक्-चातुर्य के आधार पर ज्ञानी उद्धव को परास्त कर दिया, उनके वाक् चातुर्य की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
गोपियाँ वाक्-चातुर्य में प्रवीण हैं। वे बातें बनाने में किसी को भी पछाड़ देती हैं। इसीलिए उद्धव उनकी बातों को सुनकर ठगे-से रह जाते हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि उनके हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेमनिष्ठा, आत्मीयता, भावुकता एवं सहजता का भाव व्याप्त है। वे अपनी तर्कशीलता एवं प्रगल्भता से उद्धव की बोलती बन्द कर देती है। सच्चे प्रेम में इतनी शक्ति होती है कि बड़े-से-बड़े ज्ञानी उसके सामने घुटने टेक देते हैं।

प्रश्न 12.
संकलित पदों को ध्यान में रखते हुए सूर के भ्रमरगीत की मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
सूरदास के भ्रमरगीत की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  1. संकलित पदों में गोपियों का पावन कृष्ण-प्रेम प्रकट हुआ है। उन्होंने अपने कृष्ण-प्रेम को हारिल पक्षी के पंजों में थमी हुई लकड़ी के समान बताया है।
  2. कृष्ण-प्रेम में पगी गोपियाँ वाक् चातुरता से पूरित है। वे चुपचाप आँसू बहाने वाली नहीं हैं बल्कि अपने भोले-निश्छल तर्कों से उद्धव जैसे गुणी को परास्त करने की क्षमता रखती हैं।
  3. भ्रमरगीत में गोपियों के व्यंग्य, कटाक्ष, उलाहना, निराशा, प्रार्थना, गुहार आदि अनेकानेक मनोभाव तीखे तेवरों के साथ प्रकट हुए हैं।
  4. इसमें योग और प्रेम मार्ग का शालीन द्वन्द्व दिखाया गया है और प्रेम के सामने योग-साधना को तुच्छ दिखलाया गया है।
  5. भ्रमरगीत की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। इसमें वियोग श्रृंगार रस और अलंकारों का सहज प्रयोग हुआ है।
  6. संकलित पदों में गोपियों ने उद्धव के समक्ष बड़ी सहजता के साथ अपना उलाहना दिया है। रचना और अभिव्यक्ति

प्रश्न 13.
गोपियों ने उद्धव के सामने तरह-तरह के तर्क दिए हैं, आप अपनी कल्पना से और तर्क दीजिए।
उत्तर:
गोपियों ने उद्धव के सामने तरह-तरह के तर्क दिए हैं। हम अपनी कल्पना के आधार पर ये तर्क और दे सकते हैं

  1. कृष्ण का अब हमारे प्रति प्रेम नहीं रहा। अब तो वे कुब्जा और बाँसुरी के वश में हो गये हैं।
  2. कष्ण की मनोवत्ति भौरे जैसी हो गयी है। जहाँ रस देखा वहीं चले गये और उसी के होकर रह गये। उनका प्रेम हमारी तरह एकनिष्ठ नहीं है।
  3. उद्धव! शायद तुमने उन पर प्रेम के स्थान पर अपने ज्ञान का प्रभाव डाल दिया है तभी उन्होंने योग-सन्देश यहाँ भेजा है। …
  4. कृष्ण-प्रेम में डूबी हम गोपियों द्वारा निर्गुण ब्रह्म की उपासना करना असंभव है।
  5. उद्धव! तुम्हीं बताओ जिसकी जुबान पर प्रेम रूपी मीठी खाँड का स्वाद चढ़ गया हो, वह योग रूपी कड़वी निंबौरी को कैसे और क्यों खायेगा!
  6. हे उद्धव! तम्हीं सोचो योग-साधना कठिन है। हम कोमल तन-मन वाली गोपियाँ इसे कैसे करेंगी?

प्रश्न 14.
उद्धव ज्ञानी थे, नीति की बातें जानते थे; गोपियों के पास ऐसी कौनसी शक्ति थी जो उनके वाक् चातुर्य में मुखरित हो उठी? .
उत्तर:
उद्धव ज्ञानी और नीतिज्ञ थे। इसी कारण वे नीति और ज्ञान की बातें करके गोपियों के मन को कृष्ण-प्रेम, से हटाकर निर्गुण ब्रह्म की भक्ति की ओर ले जाना चाहते थे, लेकिन वे गोपियों के वाक्-चातुर्य के सामने खड़े नहीं रह सके और हार गये, क्योंकि गोपियों के पास निश्छल, एकनिष्ठ कृष्ण-प्रेम की शक्ति थी जो उनके वाक्-चातुर्य में मुखरित हो उठी थी।

प्रश्न 15.
गोपियों ने यह क्यों कहा कि हरि अब राजनीति पढ़ आए हैं? क्या आपको गोपियों के इस कथन का विस्तार समकालीन राजनीति में नजर आता है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गोपियों ने ऐसा इसलिए कहा कि गोपियाँ कृष्ण के आने की बहुत समय से प्रतीक्षा कर रही थीं और उन्हें यह आशा थी कि उनके कृष्ण वापस आयेंगे या फिर अपना प्रेम-सन्देश भेजेंगे। लेकिन उन्होंने इन दोनों सोचों की जगह अपने से दूर ले जाने वाले योग-साधना का सन्देश भेज दिया। इस बात में गोपियों को चालाकी ही नजर आयी, तभी उन्होंने कहा कि “हरि राजनीति पढ़ि आए।”

पियों के इस कथन में हमें समकालीन राजनीति नजर आती है. क्योंकि आज की राजनीति सिर से पैर तक छल-कपट से भरी हुई है। आज के राजनेता केवल अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए बड़े-बड़े वायदे करते हैं और कुछ करते नहीं हैं। इसलिए जनता को उन पर विश्वास नहीं रहा। इतना ही नहीं, वे सीधी और सरल बात कभी नहीं करते हैं। वे हर बात को घुमा-फिराकर कहते हैं और कटु बातें दूसरे के माध्यम से कहलवाते हैं, जैसा कि कृष्ण ने किया। स्वयं तो गोपियों के लिए सीधे-सच्चे बने रहे और योग का सन्देश उद्धव के माध्यम से भिजवाया।

RBSE Class 10 Hindi सूरदास के पद Important Questions and Answers

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
गोपियों ने ‘तेल की गगरी’ सादृश्य किसे बताया है?
उत्तर:
गोपियों ने ‘तेल की गगरी’ उद्धव को बताया है जो प्रेम के सागर कृष्ण के साथ रहकर भी प्रेम से रिक्त है, अछूते हैं।

प्रश्न 2.
गोपियों ने ‘अबला भौरी’ स्वयं को किनके समान और क्यों बताया है?
उत्तर:
गोपियों ने चीटियों के समान स्वयं को अबला, भोली बताया है, जो प्रेमवश स्वयं ही गुड़ से लिपट कर अपने प्राण उत्सर्ग कर देती हैं।

प्रश्न 3.
‘अपरस रहत स्नेह-तगा तै’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
अपरस’ अर्थात् प्रेम से दूर रहना तथा ‘स्नेह तगा’ अर्थात् प्रेम रूपी धागे से। यहाँ उद्धव को प्रेम के बंधन से सदैव ही दूर रहने का उलाहना दिया गया है।

प्रश्न 4.
‘अवधि अधार आस आवन की’ से क्या आशय है?
उत्तर:
गोपियों के लिए ‘अवधि’ अर्थात् समय ही प्रेम-विरह में कृष्ण के आने का ‘आधार’ अर्थात् सम्बल या सहारा बनी हुई थी।

प्रश्न 5.
‘चाहती हुती गुहारि जितहिं तें’ पंक्ति में गोपियाँ किस सन्दर्भ में कह रही हैं?
उत्तर:
‘चाहति हुती’ से तात्पर्य गोपियाँ उस प्रेम शक्ति की बात कर रही हैं जिसके बल पर वे प्रेम की धारा कहीं भी बहा सकती हैं।

प्रश्न 6.
‘मरजादा न लहि’ किसके लिए कहा गया है? ,
उत्तर:
‘मरजादा’ अर्थात् मर्यादा। कृष्ण के लिए कहा गया है जिन्होंने प्रेम की मर्यादा नहीं रखी।

प्रश्न 7.
‘हारिल की लकरी’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
‘हारिल’ पक्षी का नाम है जो एक लकड़ी को हमेशा पकड़े रहता है?

प्रश्न 8.
‘मन-चक्करी’ से आशय है?
उत्तर:
मन में जिसके चक्कर लगे रहते हैं अर्थात् जिनका मन अस्थिर, चंचल रहता है।

प्रश्न 9.
‘समुझी बात कहत मधुकर के’ यहाँ ‘मधुकर’ किसे इंगित किया गया है?
उत्तर:
‘मधुकर’ का पर्याय भ्रमर, भँवरे से है जो कि ‘उद्धव’ को कहा गया है।

प्रश्न 10.
‘बढ़ी बुद्धि जानि जां उनकी’ पंक्ति में किसकी ओर इशारा किया गया है?
उत्तर:
इसमें श्रीकृष्ण की ओर इशारा किया गया है जिनकी बुद्धि और अधिक बढ़ गई है इसलिए योग-संदेश उन्होंने भेजा है।

प्रश्न 11.
हारिल पक्षी के उदाहरण द्वारा किस तरह के प्रेम की स्थापना हुई है?
उत्तर:
हारिल पक्षी की दृढ़ता द्वारा एकनिष्ठ प्रेम की स्थापना की गई है।

प्रश्न 12.
सूरदास के ग्रंथों के नाम बताइये।
उत्तर:
‘सूरसागर’, ‘साहित्य लहरी’ और ‘सूर सारावली’ इनके तीन ग्रंथ प्रसिद्ध हैं।

प्रश्न 13.
सूरदास के गुरु का नाम बताइये।
उत्तर:
‘महाप्रभ वल्लभाचार्य’ सरदास के गरु थे।

प्रश्न 14.
सूरदास की गिनती किन कवियों में होती हैं?’
उत्तर:
सरदास की गिनती ‘अष्टछाप’ के भक्तकवियों में होती है।

प्रश्न 15.
सूरदास की भक्ति किस प्रकार की मानी जाती है?
उत्तर:
सूरदास की कृष्ण के प्रति दास्य भक्ति मानी जाती है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
कृष्ण ने मथुरा जाने के बाद उद्धव के माध्यम से गोपियों के पास जो सन्देश भेजा, उसकी गोपियों ने क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की?
उत्तर:
गोपियों ने यह प्रतिक्रिया व्यक्त की कि हमारे मन की बात मन में ही रह गयी। उन्होंने हमारे साथ प्रेम निर्वाह की बजाय छल किया। हम सदा ही प्रियतम कृष्ण को सब तरह से अपना मानती रही, परन्तु अब वे राजनीति की बातें कर रहे हैं। उनका यह आचरण अनीति से भरा है और राजधर्म के भी विरुद्ध है।

प्रश्न 2.
गोपियों ने उद्धव को अप्रत्यक्ष रूप से क्या समझाया है?
उत्तर:
गोपियों ने अप्रत्यक्ष रूप से उद्धव को समझाया है कि तुम ज्ञानी और नीति-निपुण हो, लेकिन प्रेम से विरक्त हो। अतः तुम्हारा यह सन्देश हमारे लिए निरर्थक है। कृष्ण-प्रेम में अनुरक्त गोपियों को इससे मानसिक शान्ति नहीं मिलेगी।

प्रश्न 3.
गोपियों ने अपनी तुलना किससे की है और क्यों?
उत्तर:
गोपियों ने अपनी तुलना गुड़ से चिपकी रहने वाली चींटियों से की है, जो गुड़ के प्रति आसक्त होकर उससे लिपट जाती हैं और उसी. में लिपट कर अपने जीवन का अन्त कर लेती हैं।

प्रश्न 4.
‘प्रीति-नदी में पाउँ न बोर्यो’ के माध्यम से गोपियाँ उद्धव से क्या कहना चाहती हैं?
उत्तर:
‘प्रीति-नदी में पाउँ न बोर्यो’ के माध्यम से गोपियाँ उद्धव से कहना चाहती हैं कि प्रेम-रस से सिक्त कृष्ण के साथ रहते हुए भी तुमने कभी भी प्रेम रूपी नदी में डुबकी लगाने का प्रयास नहीं किया है।

प्रश्न 5.
गोपियों ने अपने आप को अबला और भोली क्यों कहा है? .
उत्तर:
गोपियों ने अपने आप को अबला और भोली इसलिए कहा है, क्योंकि वे उद्धव की भाँति न तो ज्ञानी हैं. और न ही दूरदर्शी हैं । इसलिए वे बिना सोचे-समझे कृष्ण-प्रेम में दीवानी हो गयी हैं। अब उन्हें विरह-वेदना भोगने के लिए विवश किया जा रहा है।

प्रश्न 6.
कृष्ण द्वारा भेजा गया योग-सन्देश सुन गोपियाँ हताश और कातर क्यों हो उठीं?
उत्तर:
गोपियाँ अनन्य प्रेमनिष्ठा रखकर कृष्ण को ही अपना एकमात्र अवलम्ब समझती थीं। इसलिए वे कृष्ण द्वारा भेजा गया हृदय-विदारक योग-सन्देश सुनकर हताश और कातर हो उठीं, क्योंकि उनका अवलम्ब टूट गया था और वे बेसहारा हो गयीं।

प्रश्न 7.
“मन की मन ही माँझ रही” गोपियों ने ऐसा क्यों कहा?
अथवा
“मन की मन ही माँझ रही”-गोपियों की मन की इच्छा उनके मन में ही क्यों रह गई?
उत्तर:
गोपियों ने मन में सोचा था कि प्रिय कृष्ण स्वयं हमसे मिलने आयेंगे, तो हम अपनी विरह-वेदना की गाथा उन्हें सुनायेंगी। लेकिन स्वयं न आकर उन्होंने योग-सन्देश भेज दिया। इसलिए मन की मन में ही रह गयी।

प्रश्न 8.
‘मरजाद ढही’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गोपियों ने जिन कृष्ण के लिए संसार, वंश और परिवार की मर्यादा त्याग दी थी, उन्होंने प्रेमनिष्ठा एवं समर्पण भाव की उपेक्षा करके योग-साधना का सन्देश भेज दिया। इससे हमारी सम्पूर्ण मर्यादा नष्ट हो जायेगी।

प्रश्न 9.
गोपियाँ अब धैर्य क्यों नहीं रख पा रही हैं?
उत्तर:
गोपियाँ अब इसलिए धैर्य नहीं रख पा रही हैं, क्योंकि उनके प्रिय कृष्ण ने प्रेम की मर्यादा का उल्लंघन किया है और प्रेम निभाने की बजाय भेजे योग-सन्देश के माध्यम से उन्हें दूर रखने की युक्तियाँ सुझाई हैं।

प्रश्न 10.
गोपियाँ कृष्ण को हारिल की लकड़ी क्यों कहती हैं?
उत्तर:
हारिल पक्षी अपने पंजों में रात-दिन लकड़ी के टुकड़े को थामे रहता है उसी प्रकार गोपियाँ भी कृष्ण को दिन-रात अपने मन में बसाए रखती हैं। इसी समानताधार पर वे कृष्ण को हारिल की लकड़ी कहती हैं।

प्रश्न 11.
“सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए” यहाँ गोपियों ने ‘व्याधि’ किसे माना है और क्यों?
उत्तर:
यहाँ गोपियों ने कृष्ण द्वारा उद्धव के माध्यम से भेजे गये योग-सन्देश को व्याधि माना है, क्योंकि इसे न तो उन्होंने कभी देखा, न सुना और न उसका अनुभव किया है। इसलिए उन्होंने इसे कड़वी ककड़ी की भाँति अरुचिकर कहा है।

प्रश्न 12.
गोपियाँ योग का सन्देश उद्धव से किन्हें देने के लिए कहती हैं और क्यों?
उत्तर:
गोपियाँ योग का सन्देश उद्धव को उन्हें देने के लिए कहती हैं जिनका चित्त अस्थिर हो, अर्थात् जिनका मन हमेशा चकरी की तरह घूमता रहता हो। हमारा मन तो पहले से ही कृष्ण-प्रेम में स्थिर हो चुका है।

प्रश्न 13.
“ते क्यों अनीति करें आपुन, जे और अनीति छुड़ाए”-गोपियों ने इससे किस पर व्यंग्य किया है?
उत्तर:
इससे गोपियों ने कृष्ण के व्यवहार पर व्यंग्य किया है, क्योंकि कृष्ण ने अब तक लोगों को अन्याय से बचाया है। मथुरा में राजा बनने से तो उन्हें राजधर्म का पूरा निर्वाह करना चाहिए, परन्तु अब वे हमारे लिए योग-सन्देश भेजकर अन्याय कर रहे हैं।

प्रश्न 14.
“राजधरम तो यहै” इस कथन के माध्यम से सूरदास ने किस जीवन-सत्य का बोध कराया है?
उत्तर:
सूरदास ने इस जीवन-सत्य का बोध कराया है कि राजधर्म के अनुसार प्रजा को सताना नहीं चाहिए। अतः कृष्ण रूपी राजा को अपना योग-सन्देश वापस लेकर प्रजा रूपी गोपियों को दर्शन देना चाहिए।

प्रश्न 15.
“ऊधो, तुम हौ अति बड़भागी’ में किन लोगों पर व्यंग्य है? सूरदास ने इसके माध्यम से क्या सन्देश दिया है?
उत्तर:
यहाँ कृष्ण-प्रेम से वंचित लोगों पर व्यंग्य है। जिन लोगों ने भगवान् से प्रेम नहीं किया, उनका जीवन व्यर्थ है। ईश्वरीय-प्रेम से रहित लोग अभागे हैं। प्रभु-प्रेम में चाहे कितनी तड़प हो, किन्तु जीवन की सार्थकता उसी से मिलती है।

निबन्धात्मक प्रश्न

पश्न 1.
सरसागर में वर्णित ‘भ्रमरगीत’ का अभिप्राय बताइये।
उत्तर:
भक्तकवि सूरदास द्वारा लिखित ‘सूरसागर’ ग्रंथ में ‘भ्रमरगीत’ का विशेष स्थान है। इसमें कृष्ण काव्य के उस प्रसंग को भ्रमरगीत नाम से पुकारते हैं, जिसमें उद्धव कृष्ण द्वारा योग संदेश लेकर भेजे गए हैं और वहाँ गोपियाँ उस योग-संदेश को निरर्थक एवं व्यर्थ बताकर अनेक उपालम्भ देती हैं। जिस प्रकार भ्रमर या भंवरा फूलों का रस-पान करके अन्यत्र कहीं चला जाता है, वैसे ही कृष्ण भी गोपियों से प्रेम करके मथुरा चले गए हैं। उनका संदेश वाहक उद्धव भी गोपियों को भ्रमर समान ही प्रतीत होता है। भंवरा या भ्रमर का रंग काला होने के कारण तथा रूप लोभित व रसलोभिंत होने की वजह से श्रीकृष्ण एवं उद्धव भी रूप-गुण-कार्य साम्य के आधार पर गोपियाँ उन्हें भ्रमर कहती हैं। हिन्दी साहित्य में गोपियों के विरह-वर्णन से सम्बन्धित इस प्रसंग को ‘भ्रमरगीत’ नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 2.
संकलित पदों में व्यक्त गोपियों की विरह-विवशता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
‘भ्रमरगीत’ में सूरदास ने उद्धव द्वारा ज्ञान योग का संदेश देते ही गोपियाँ उपालम्भ देती हुई अपनी विरह विवशता प्रकट करती हैं। गोपियाँ कहती हैं कि हमारे मन की बात मन में ही रह गई। अब तक मिलने की आस में हम समय व्यतीत कर रही थीं लेकिन कृष्ण के ज्ञान योग संदेश ने उस विरह की अग्नि को और अधिक बढ़ा दिया है। ज्ञान योग को स्वीकार न करते हुए गोपियाँ अपने प्रेम की एकनिष्ठता को हारिल पक्षी की दृढ़ता से व्यक्त करती हैं – ‘हमारै हरि हारिल की लकड़ी’। गोपियों ने कहा कि वे तो रात-दिन, सोते-जागते कृष्ण का नाम जपती हैं। उनका ज्ञान-योग संदेश कड़वी-ककड़ी के समान प्रतीत होता है जो ग्रहण नहीं किया जा सकता है। कृष्ण को अति चतुर एवं राजनीतिज्ञ मान कर गोपियाँ अपने उस मन को वापस पाने की चाह रखती हैं जिसमें कृष्ण बसे हुए हैं और मथुरा जाते समय कृष्ण साथ ले कर चले गए। अन्त में कहती हैं कि कृष्ण जो कर रहे हैं वह एक राजा का धर्म नहीं है जो अपनी प्रजा को सताएं। इस प्रकार गोपियों की अनेक विवशताएँ प्रकट हुई हैं।

प्रश्न 3.
सूरदास के पदों में सरसता एवं भावुकता के साथ वाग्विदग्धता भी है, स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रतुत पदों की सबसे बड़ी विशेषता है गोपियों की वाग्विदग्धता। वाग्विदग्धता से तात्पर्य है, बोलने का कौशल। सूरदास ने गोपियों के माध्यम से अनेक स्थलों पर इसका प्रयोग किया है। जहाँ वे कहती हैं कि ‘ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी’ यहाँ उनकी व्यंजना छिपी हुई है। गोपियाँ दिखावे के लिए उद्धव की प्रशंसा कर रही हैं किन्तु उनकी वाग्विदग्धता प्रकट होती है कि तुम बड़े अभागे हो जो प्रेम के सागर कृष्ण के समीप रह कर भी प्रेम से अछूते ही रहे। इसी तरह योग को कड़वी ककड़ी तथा ऐसे रोग के समान बताया गया है जिन्हें न तो ग्रहण किया जा सकता है और न  संजीव पास बुक्स ही कभी उस रोग के बारे में सुना गया है। कृष्ण के लिए गोपियाँ कहती हैं कि ‘इक अति चतुर हुतै पहिले ही, अब गुरु ग्रंथ पढाए’ यहाँ पर कृष्ण को अत्यधिक चतुर बताते हुए गुरु उद्धव द्वारा सिखाये हुए बताया गया है। अंत में कोई हल नहीं निकलता देख गोपियाँ अपने उस मन को वापस पाना चाहती हैं जो कृष्ण जाते समय चुरा ले गए थे। इस तरह सूरदास के भाषा-कौशल में सहृदयता के साथ प्रचुर मात्रा में वाग्विदग्धता भी स्पष्ट होती है।

रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न

प्रश्न 1.
महाकवि सूरदास का परिचय संक्षेप में दीजिए।
अथवा
महाकवि सूरदास के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का परिचय दीजिए।
उत्तर:
भक्तिकाल के प्रमुख कृष्ण भक्त एवं सगुण उपासक सूरदास का जन्म सन् 1478 में तथा निधन सन् 1583 में माना जाता है। मान्यतानुसार उनका जन्म दिल्ली के निकट ‘सीही ग्राम’ में हुआ माना जाता है। वे जन्मांध थे। महाप्रभु वल्लभाचार्य से दीक्षित कवि सूरदास अष्टछाप के भक्त कवियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध थे। वे मथुरा और वृंदावन के मध्य गऊघाट पर रहते हुए श्रीनाथ के मंदिर में भजन कीर्तन करते थे। ‘सूरसागर, सूरसारावली एवं साहित्य लहरी’ उनके प्रमुख ग्रंथ थे। सूर वात्सल्य एवं शृंगार के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं।

सूरदास के पद Summary in Hindi

कवि-परिचय :

सूरदास भक्तिकाल के प्रमुख कवि माने जाते हैं। इनका जन्म सन् 1478 में माना जाता है। एक मान्यता के अनुसार उनका जन्म मथुरा के निकट रुनकता या रेणुका क्षेत्र में हुआ, जबकि दूसरी मान्यता के अनुसार उनका जन्म-स्थान दिल्ली के पास ‘सीही’ गाँव में माना जाता है। उन्होंने सगुण उपासना का प्रतिपादन किया। इनकी तीन रचनाएँ मानी जाती हैं.’सूरसागर’, ‘साहित्य लहरी’ और ‘सूर-सारावली’। उन्होंने कृष्ण को आराध्य मानकर उनकी बाल-लीलाओं, रूप-छवि, संयोग-वियोग, श्रृंगार तथा भक्ति से सम्बन्धित हजारों पदों की रचना की है। इनके ‘भ्रमर गीत’ में सगुण भक्ति का सुन्दर प्रतिपादन हुआ है। पुष्टिमार्गीय अष्टछाप के कवियों में सूरदास की गणना सर्वप्रथम की जाती है। ये वल्लभाचार्य के प्रमुख शिष्य थे। सन् 1583 में पारसौली में उनका देहान्त हो गया।

पाठ-परिचय :

पाठ में संकलित चारों पद ‘भ्रमरगीत’ से लिए गये हैं। गोपियों ने भ्रमर के बहाने सन्देशवाहक उद्धव पर व्यंग्य-बाण छोड़े हैं। पहले पद में गोपियाँ उद्धव को सौभाग्यशाली मानती हैं, क्योंकि वे कभी प्रेम के चक्कर में नहीं पड़े और न उन्होंने प्रेम का स्वाद चखा। ये तो हमी मूर्खा हैं जो कृष्ण-प्रेम में ऐसे लिपट गईं जैसे गुड़ में चींटी लिपट जाती है। दूसरे पद में गोपियों की यह स्वीकारोक्ति कि उनके मन की आस मन में ही रह गयी, कृष्ण के प्रति उनके प्रेम की गहराई को अभिव्यक्त करती है। तीसरे पद में गोपियाँ उद्धव की योग-साधना को कड़वी ककड़ी जैसा बताकर कृष्ण के प्रति अपने एकनिष्ठ प्रेम में दृढ़ विश्वास व्यक्त करती हैं। चौथे पद में ताना मारती हुई कहती हैं कि कृष्ण ने अब राजनीति सीख ली है। वे हमें योग-मार्ग अपनाने की बात कहकर हम पर अन्याय कर रहे हैं। उनका यह व्यवहार राजधर्म के विपरीत है।

सप्रसंग व्याख्याएँ :

पद 1.
ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न त्यागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूंद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोर्यो, दृष्टि न रूप परागी।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी॥

कठिन-शब्दार्थ :

  • बड़भागी = भाग्यशाली।
  • अपरस = अछूता, अलिप्त ।
  • तगा = धागा।
  • नाहिन = नहीं।
  • अनुरागी = प्रेम में डूबा।
  • पुरइनि पात = कमल का पत्ता।
  • दागी = दाग, धब्बा।
  • माहँ = भीतर, में।
  • प्रीति = प्रेम।
  • बोरयौ = डुबोया।
  • परागी = मोहित हुई।
  • भोरी = भोली।
  • गुर = गुड़।
  • पागी = लिपटी हुई।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश भक्त कवि सूरदास द्वारा रचित ‘सूरसागर’ के ‘भ्रमरगीत प्रसंग’ से लिया हुआ है। इसमें सूरदासजी ने उद्धव एवं गोपियों के मध्य हुए कृष्ण-प्रेम को लेकर गोपियों द्वारा उद्धव को दिए गए उपालम्भ को व्यक्त किया है। जिसमें गोपियाँ उद्धव पर प्रेमहीन होने की व्यंजना प्रस्तुत कर रही हैं।

व्याख्या – गोपियाँ उद्धव की प्रेमहीनता पर व्यंग्य कर कहती हैं कि हे उद्धव! तुम सचमुच बड़े भाग्यशाली हो, क्योंकि तुम कभी प्रेम के धागे से नहीं बंधे हो, अर्थात् प्रेम-बन्धन से सर्वथा मुक्त हो। तुम प्रेम-बंधन से उसी प्रकार सर्वथा मुक्त रहते हो, जिस प्रकार कमल का पत्ता हमेशा जल में रहता है, परन्तु उस पर जल का एक भी दाग नहीं लग पाता। अर्थात् उस पर जल की बूंद भी नहीं ठहर पाती। अथवा तेल की मटकी को जल के भीतर डुबाने पर भी उस पर जल की एक बूंद भी नहीं ठहरती।

इसी प्रकार तुम भी प्रेम-रूप कृष्ण के हमेशा पास रहते हुए भी कभी उनसे प्रेम नहीं करते, उनके प्रभाव से हमेशा मुक्त बने रहते हो। गोपियाँ कहती हैं कि तुमने आज तक कभी भी प्रेम-नदी में अपना पैर तक नहीं डुबोया। अर्थात् कभी प्रेम के पास तक नहीं फटके और तम्हारी दष्टि किसी के रूप को देखकर उस पर मोहित नहीं हुई है। परन्त हम तो भोली भाली अबलाएँ हैं, जो अपने प्रियतम की रूप माधुरी पर उसी प्रकार आसक्त होकर उसके प्रेम में पग गई हैं, जैसे चींटी गुड़ पर आसक्त होकर उसके ऊपर चिपट जाती है और फिर उससे अलग नहीं हो पाती है और वहीं अपने प्राण दे देती है।

विशेष  :

  1. इस पद में गोपियाँ स्वयं को अबला एवं भोली बताते हुए उद्धव को स्नेहहीन व चतुर होने का उपालम्भ देती हैं।
  2. भावाभिव्यक्ति सहज एवं सरलता से पूर्ण है।
  3. रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा अलंकारों का प्रयोग एवं ब्रजभाषा की सहज छटा प्रस्तुत है।

पद 2.
मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुती गुहारि जितहिं तैं, उत तें धार बही।
‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यों, मरजादा न लही॥

कठिन-शब्दार्थ:

  • माँझ = मध्य, में।
  • अवधि = समय ।
  • अधार = आधार, सहारा ।
  • आस = आशा।
  • आवन की = आने की।
  • बिथा = पीड़ा।
  • दही = जलना ।
  • गुहारि = रक्षा के लिए पुकारना।
  • बही = बहना।
  • धीर = धैर्य ।
  • धरहिं = रखें, धारण करें।
  • मरजादा = मर्यादा।
  • लही = ग्रहण।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश भक्त कवि सूरदास द्वारा रचित ‘सूरसागर’ के ‘भ्रमरगीत प्रसंग’ से लिया गया है। उद्धव एवं गोपियों के मध्य कृष्णप्रेम को लेकर दिए गए उलाहनों का वर्णन प्रस्तुत है । गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि कृष्ण को अपने मन की बात कह ही नहीं पाईं, अपने प्रेम को व्यक्त नहीं कर पाईं।

व्याख्या – सूरदास जी गोपियों की विरह व्यथा को व्यक्त करते हुए उनकी दयनीय दशा को बता रहे हैं। कृष्ण ने योग संदेश गोपियों को देने के लिए तथा उनका प्रेम भूलने के लिए उद्धव को भेजा था। जहाँ उद्धव को गोपियाँ कहती हैं कि हमारे मन की बातें हमारे मन में ही रह गई क्योंकि हम कृष्ण को अपने हृदय का प्रेम व्यक्त कर पाते उससे पहले ही वे हमें छोड़कर चले गए। इसलिए हे उद्धव।

अब हम अपनी बातें किससे और कैसे जाकर कहें? अब तक तो हमें कृष्ण के आने की आशा थी इसलिए उनके प्रेम से प्राप्त तन-मन की पीड़ा को सहन कर रही थीं। लेकिन अब इन योग संदेश को सुन-सुन हमें हमारा विरह और भी जलाने लगा है। अर्थात् प्रेम में डूबी गोपियों को जब योग धारण करने का संदेश प्राप्त होता है तो वे और अधिक विरह में जलने लगती है।

गोपियाँ आगे कहती हैं कि हम अगर चाहती तो आवाज लगाकर कृष्ण को बुलातीं और वे इस विरह अग्नि को अपनी प्रेम-धारा से तत्क्षण ही बुझा देते अर्थात् अपनी प्रेम-धारा बहा देते लेकिन जब श्रीकृष्ण ने ही अपनी मर्यादा को त्याग दिया है तब हम किस प्रकार धैर्य धारण रखें? तात्पर्य है कि कृष्ण ने प्रेम में हमसे छल किया है तो हम अब कैसे शान्त रह सकती हैं।

विशेष :

  1. गोपियों की विरह-व्यथा एवं कृष्ण के छलनामयी प्रेम को व्यक्त किया गया है।
  2. ब्रजभाषा की सुन्दर व्यंजना एवं अलंकारों का समुचित प्रयोग प्रस्तुत है।

पद 3.
हमार हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जकरी।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्याँ करुई ककरी।
सु तो ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तो ‘सूर’ तिनहिं लै साँपो, जिनके मन चकरी॥

कठिन-शब्दार्थ :

  • हारिल = एक पक्षी विशेष जो हमेशा अपने पंजों में कोई न कोई लकड़ी का टुकड़ा या तिनका पकड़े रहता है।
  • क्रम = कर्म।
  • उर = हृदय।
  • दृढ़ = मजबूती से।
  • जक = रटन, धुन।
  • कई = कड़वी।
  • ककरी = ककड़ी।
  • ब्याधि = बीमारी।
  • चकरी = चंचल, चकई के समान सदैव अस्थिर रहने वाला।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश भक्त कवि सूरदास द्वारा रचित ‘सूरसागर’ के ‘भ्रमरगीत प्रसंग’ से लिया गया है। योग सिखाने आये उद्धव को गोपियाँ कृष्ण के प्रति दृढ़ प्रेम को व्यक्त करती हैं। वे कहती हैं कि हारिल पक्षी द्वारा पकड़ी गई लकड़ी के समान उनका प्रेम दृढ़ एवं एकनिष्ठ है।

व्याख्या – कृष्ण के प्रति अपने दृढ़ प्रेम का वर्णन करती हुई गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव! हमारे लिए तो कृष्ण हारिल पक्षी की लकड़ी के समान बन गए हैं। अर्थात् जिस प्रकार हारिल पक्षी हर समय अपने पंजों में लकड़ी या तिनके को पकड़े रहता है, उसी प्रकार हम भी निरन्तर अपने कृष्ण का ध्यान करती रहती हैं। हमने मन, वचन और कर्म से नंदनन्दन रूपी लकड़ी को अर्थात् कृष्ण के रूप और उनकी स्मृति को अपने मन द्वारा कस कर पकड़ लिया है। अब उसे हमसे कोई भी नहीं छुड़ा सकता है। हमारा मन जागते-सोते चाहे किसी भी दशा में क्यों न हो, हमेशा ही कृष्ण-कृष्ण की रट लगाये रहता है। अर्थात् उन्हीं का ध्यान करता रहता है।

गोपियाँ कहती हैं कि हे भ्रमर! तुम्हारी योग की बातें सुनते ही हमें ऐसा लगता है कि मानो हमने कड़वी ककड़ी खा ली हो। अर्थात् तुम्हारी ये योग की बातें हमें नितान्त अरुचिकर लगती हैं। तुम तो हमारे लिए ऐसी मुसीबत ले आए हो जिसे हमने न तो का तो कभी देखा. न सना और न कभी भगता ही है। अर्थात हम तम्हारी इस योग रूपी बीमारी से परी तरह अपरिचित हैं। इसलिए इस बीमारी को तम उन लोगों को जाकर दो जिनके मन चकई के समान हमेशा चंचल रहते हैं अर्थात् भटकते रहते हैं। परन्तु हमारी चित्तवृत्ति तो पहले से ही कृष्ण-प्रेम में स्थिर हो चुकी है, इसलिए तुम्हारा यह योग हमारे लिए व्यर्थ है।

विशेष :

  1.  गोपियों ने अपने प्रेम की दृढ़ता एवं एकनिष्ठता को हारिल पक्षी की उपमा देकर व्यक्त किया है।
  2. ब्रजभाषा का प्रयोग तथा रूपक-उपमा अलंकार की छटा दर्शनीय है।
  3. विरह में डूबी गोपियों की सहज भावाभिव्यक्ति का वर्णन है।

पद 4.
हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपनै मन फेर पाइहैं, ‘चलत जु हुते चुराए।
ते क्यों अनीति करें आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तो यह ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए।

कठिन-शब्दार्थ :

  • पढ़ि आए = सीख आए।
  • मधुकर = भ्रमर, उद्धव।
  • पठाए = भेजे।
  • आगे के = पहले के।
  • डोलत धाए = दौड़ते फिरना।
  • फेर पाइहैं = फिर से पा लेंगी।
  • आपुन = स्वयं।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश भक्त कवि सूरदास द्वारा रचित ‘सूरसागर’ के ‘भ्रमरगीत प्रसंग’ से लिया गया है। जिसमें योग संदेश देने आये उद्धव को गोपियाँ अपने प्रेम के उपालम्भ दे रही हैं। उनका कहना है कि श्रीकृष्ण ने अब प्रेम के बदले राजनीति सीख ली है और उसी का प्रयोग योग संदेश देकर कर रहे हैं।

व्याख्या – गोपियाँ कृष्ण द्वारा भेजे गये योग-सन्देश को लेकर कह रही है कि एक तो कृष्ण पहले से ही चतुर थे और अब गुरु से राजनीतिशास्त्र भी पढ़ लिया है। उनकी बुद्धि कितनी विशाल है, इसका अनुमान तो इसी बात से मिल गया है कि वे युवतियों के लिए योग-साधना करने का सन्देश भिजवा रहे हैं। अर्थात् इससे यह प्रमाणित हो गया है कि वे बुद्धिमान न होकर मूर्ख हैं, क्योंकि कोई मूर्ख ही प्रेमी युवतियों के लिए योग-साधना को उचित मान सकता है, बुद्धिमान नहीं।

गोपी कहती है कि हे सखि! पुराने जमाने में सज्जन पुरुष दूसरों की भलाई करने के लिए इधर-उधर दौड़ते फिरते थे और यह आज के सजन पुरुष उद्धवजी हैं जो दूसरों को दुःख देने और सताने के लिए यहाँ तक दौड़े चले आए हैं। हम तो केवल इतना ही चाहती हैं कि हमें हमारा मन फिर मिल जाए जिसे कृष्ण यहाँ से जाते समय चुपचाप चुराकर अपने साथ ले गये थे।

परन्तु कृष्ण जैसे लोगों से ऐसे न्यायपूर्ण कार्य की आशा कैसे की जा सकती है। अर्थात् . हमारी रीति तो कृष्ण से प्रेम करने की थी और कृष्ण चाहते हैं कि हम अपनी इस रीति को त्यागकर, उनसे प्रेम करना छोड़, योग-साधना को अपना लें। यह उनका सरासर अन्याय है। सूरदास के वर्णनानुसार गोपियाँ कहने लगी कि सच्चा राजधर्म तो उसी को माना गया है जिसके अन्तर्गत प्रजाजनों को कभी भी सताया न जाए। अर्थात् कृष्ण अपना स्वार्थ साधने के लिए हमारे सुख-चैन को हमसे छीनकर हमें दुःखी करने का प्रयत्न कर रहे हैं। यह उनकी उसी कुटिल राजनीति का ही एक अंग है।

विशेष :

  1. इस पद में गोपियों के वाक्-चातुर्य की प्रस्तुति है जिसमें वे अपने मन को कृष्ण से वापस चाहती हैं।
  2. ब्रजभाषा की सुन्दर प्रस्तुति एवं भावों की सरलता व्यक्त हुई है।
  3. रूपक अलंकार एवं गेयता प्रस्तुत है।

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