हाई स्कूल में संवाद कैसे पढ़ाते हैं? - haee skool mein sanvaad kaise padhaate hain?

क्लास में बच्चों का मन न लगे तो शिक्षक क्या करें

  • निकोलस मैन्कॉल-बिटेल
  • बीबीसी कैपिटल

5 मार्च 2019

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स्मार्टफोन बच्चों के ध्यान केंद्रित करने की क्षमता को नुकसान पहुंचा रहे हैं. नई पीढ़ी को पढ़ाना-सिखाना शिक्षकों के लिए बड़ी चुनौती है. जेनरेशन ज़ेड (उम्र 10 से 24 साल) और जेनरेशन अल्फा (उम्र 0 से 9 साल) के बच्चे ऐसी दुनिया में पैदा हुए हैं, जहां स्मार्टफोन उनकी दिशा तय कर रहे हैं.

बच्चे स्मार्टफोन ऐप्स और स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म से आ रही उत्तेजनाओं के इतने आदी हो गए हैं कि क्लासरूम में ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहे.

समस्या शिक्षकों के सामने भी है कि तकनीक के साथ बड़े हो रहे बच्चों को पारंपरिक शिक्षा कैसे दी जाए?

कृपया ध्यान दें

बच्चों के मस्तिष्क का विकास एक जटिल विषय है. पिछले कुछ वर्षों में दुनिया भर के शोधकर्ताओं ने एकाग्रता पर स्मार्टफोन और मीडिया मल्टी-टास्किंग के दुष्प्रभावों को लेकर चिंता जाहिर की है.

"रेजिंग जेनरेशन टेक" के लेखक डॉक्टर जिम टेलर कहते हैं, "इसके स्पष्ट सबूत हैं कि तकनीक, सोशल मीडिया, इंटरनेट तक तुरंत पहुंच और स्मार्टफोन बच्चों को नुकसान पहुंचा रहे हैं."

हालांकि, ये सबूत पूरी तरह प्रमाणित नहीं हैं और उनके ख़िलाफ तर्क दिए जा सकते हैं.

टेलर कहते हैं, "हम बच्चों के सोचने और उनके मस्तिष्क के विकास के तरीके को मौलिक रूप से बदल रहे हैं."

फिलाडेल्फिया में सातवीं और आठवीं क्लास (12 से 14 साल) के बच्चों को पढ़ाने वाली लॉरा शाद का कहना है कि औसत किशोर लगभग 28 सेकेंड तक ही ध्यान केंद्रित कर पाते हैं.

स्मार्टफोन ने उनके दिमागी विकास को प्रभावित किया है और शिक्षकों को नहीं पता कि इससे कैसे निपटा जाए.

लॉरा शाद 2015 में शिक्षक बनी थीं. उन्हें इस बात का कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया था कि डिजिटल युग में पैदा हुए छात्रों को कैसे पढ़ाया जाए.

पारंपरिक स्कूलों में मिलने वाले टास्क और पढ़ाई पर तकनीक का असर साफ-साफ दिखता है. बच्चे टेक्स्ट-बुक पर आधारित डिजिटल मीडिया से इंस्टाग्राम और स्नैपचैट जैसे ऐप्स की ओर बढ़ गए हैं, जहां चित्रों की भरमार है.

एरिका स्विफ्ट कैलिफोर्निया में सैक्रेमेंटो के हरमन लिम्बैक एलीमेंट्री स्कूल में छठी कक्षा के बच्चों को पढ़ाती हैं.

वह कहती हैं, "लंबे और जटिल पाठ को बिना ब्रेक लिए पढ़ने में छात्रों को दिक्कतें आने लगी हैं. पहले के छात्र ज़्यादा देर तक ऐसे पाठ पढ़ते थे."

"वे बार-बार ब्रेक मांगते हैं, काम करने की जगह दूसरों से बातें करते रहते हैं. कुछ बच्चों ने तो लंबे पाठ पढ़ना छोड़ ही दिया है."

पाठ को किसी डिवाइस पर ट्रांसप्लांट कर देना भी मददगार नहीं है. समस्या सिर्फ़ प्रिंट पर स्क्रीन को वरीयता देने से कहीं ज़्यादा गहरी है.

टेलर का कहना है कि एकाग्रता सीखने का प्रवेश द्वार है. याददाश्त गहरी समझ की ओर ले जाती है.

टेलर बताती हैं, "ध्यान देने की क्षमता के बिना बच्चे किसी सूचना को संसाधित करने में सक्षम नहीं होंगे. वे उनको याद नहीं कर पाएंगे. इसका मतलब यह है कि वे उनकी व्याख्या, विश्लेषण, संश्लेषण और आलोचना नहीं कर पाएंगे और सूचना के बारे में किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाएंगे."

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भविष्य के क्लासरूम

छात्र जब लंबे व्याख्यानों पर ध्यान नहीं दे पाते तो कई शिक्षक पाठ को छोटे-छोटे हिस्सों में बांट देते हैं.

एल्क ग्रोव स्कूल डिस्ट्रिक्ट की टेक इंटीग्रेशन स्पेशलिस्ट गेल डेस्लर कहती हैं, "शिक्षकों को लगता है कि छोटे पाठ अच्छे हैं."

कुछ शिक्षक छात्रों की एकाग्रता बढ़ाने के लिए मेडिटेशन भी कराते हैं. कैलिफोर्निया के सालिनास में एक हाई स्कूल टीचर ने छात्रों को मेडिटेशन में मदद करने के लिए Calm App बनाया था.

कुछ शिक्षक छात्रों से वहां जाकर संवाद करते हैं, जहां वे होते हैं, जैसे यूट्यूब और इंस्टाग्राम.

एजुकेशनल पब्लिशर पियर्सन के ग्लोबल रिसर्च एंड इनसाइट की वाइस-प्रेसिडेंट आशा चोकसी एक शिक्षक का उदाहरण देती हैं, जिन्होंने एक वैज्ञानिक प्रयोग करते हुए अपना वीडियो बनाया और उसे यूट्यूब पर डाल दिया.

उसी वीडियो को उन्होंने क्लासरूम में छात्रों को दिखाया और ऊबाऊ लगने वाला एक पाठ समझाने की कोशिश की.

इसी तरह शाद इंस्टाग्राम के जरिये अपने छात्रों को काम पर लगाए रखती हैं. वह होमवर्क और फ़ील्ड ट्रिप के बारे में उनको याद दिलाती रहती हैं.

डिजिटल प्लेटफॉर्म छात्रों का ध्यान लगा सकते हैं यदि वहां उनकी रुचि की चीजें हों. डेस्लर उन शिक्षकों की तारीफ़ करती हैं जो नाज़ी दुष्प्रचार के इतिहास को साइबर बुलिंग से जोड़ते हैं.

वह कहती हैं, "यदि आप अनिवार्य पाठ्यक्रम में आज की प्रासंगिक चीजों को जोड़ते हैं तो छात्रों की समझ में आता है और उनका मन लगता है."

फ़्लिपग्रिड जैसे शैक्षणिक प्लेटफॉर्म, जहां छात्र प्रेजेंटेशन देते हुए अपने वीडियो शेयर कर सकते हैं, शिक्षकों को छात्रों के साथ जुड़ने में मदद करते हैं.

पियर्सन के 2018 के अध्ययन में पाया गया कि जेनरेशन ज़ेड के छात्र किताबों की जगह वीडियो देखना पसंद कर रहे हैं. शिक्षकों के बाद उनके लिए वीडियो ही सूचनाओं के दूसरे सबसे बड़े स्रोत हैं.

छात्रों का ध्यान जहां पर लगा है, वहां अगर शिक्षक उनसे मिलें तो उनका ध्यान बेहतर तरीके से खींच सकते हैं.

कुछ स्कूलों ने गूगल क्लासरूम जैसे प्लेटफॉर्म को अपनाया है, जहां छात्र और अभिभावक ग्रेड और आगामी असाइनमेंट को मॉनिटर कर सकते हैं.

छात्र कहां कमजोर पड़ रहे हैं यह समझने के लिए उनके प्रदर्शन को भी ट्रैक किया जा सकता है.

तकनीक ने पढ़ने के कौशल को जो नुकसान पहुंचाया है, वह उसकी भरपाई भी कर सकती है.

फिलाडेल्फिया में शाद के स्कूल में शिक्षक पिछड़े हुए छात्रों की मदद के लिए कंप्यूटर का सहारा लेते हैं.

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कंप्यूटर से पढ़ाई

लेक्सिया इस स्कूल का पसंदीदा रीडिंग प्लेटफॉर्म है. यहां खेल-खेल में छात्रों की भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाता है.

प्रदर्शन के आधार पर छात्रों के अलग समूह बनते हैं. सफल छात्रों को अगले दर्जे के ऑफलाइन काम दिए जाते हैं. पिछड़े हुए छात्रों से डिजिटल अभ्यास कराया जाता है, जब तक कि वे पाठ को पूरी तरह समझ न लें.

यह तरीका तकनीक से अलग-अलग स्तर तक प्रभावित छात्रों के बीच के अंतर को पाटने में मदद करता है.

अमरीका शिक्षा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ग्लोबल लीडर है. 2018 में यहां की एजु-टेक कंपनियों ने 1.45 अरब डॉलर (1.1 अरब पाउंड) जुटाए. लेकिन फ़्लिपग्रिड और लेक्सिया जैसी कंपनियों को दूसरे देशों से प्रतिस्पर्धा मिल रही है.

पूर्वी एशिया में एजु-टेक इंडस्ट्री तेज़ी से फैल रही है. अमरीकी प्लेटफॉर्म जैसे न्यूटन (Knewton) ने विदेश में अपना विस्तार किया है.

ये कंपनियां छात्रों के लिए डिजिटल क्लासरूम बनाने की वैश्विक रुचि का दोहन कर रही हैं.

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मिश्रित अध्ययन

शिक्षक क्लासरूम में तकनीक को अपना रहे हैं, लेकिन कई अध्ययनों से पता चला है कि पारंपरिक क्लासरूम ज़्यादा क़ामयाब हो सकते हैं.

लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के 2015 के एक अध्ययन ने दिखाया था कि जब बर्मिंघम, लंदन, लीसेस्टर और मैनचेस्चर के स्कूलों ने क्लासरूम में फोन पर पाबंदी लगा दी तो GCSE टेस्ट स्कोर में सुधार हो गया.

न्यूरोसाइंस के प्रोफेसर और "द लर्निंग स्किल्स साइकल" के लेखक विलियम लेम 2014 के एक अध्ययन की ओर इशारा करते हैं.

इसमें पता चला था कि क्लासरूम में नोट्स लिखने वाले छात्र लैपटॉप पर लिखने वाले छात्रों से ज़्यादा सूचनाएं याद रख पाते हैं.

लेम किसी पाठ को छोटे-छोटे खंडों में बांटना ख़तरनाक मानते हैं. उनका कहना है कि एक पाठ से दूसरे पाठ में जल्दी चले जाने से छात्रों की समझ विकसित नहीं हो पाती. जब शिक्षक किसी पाठ को शुरू करें तो छात्रों को उसे पूरा समझने में समय लगता है.

तकनीक में महारत रखने वाले कई शिक्षाविद भी पढ़ाई के परंपरागत तरीकों की अहमियत मानते हैं और मिश्रित शिक्षण का सुझाव देते हैं.

यूनिवर्सिटी ऑफ़ वॉशिंगटन इंफॉर्मेशन स्कूल की एसोसिएट प्रोफेसर केटी डेविस कहती हैं, "मैंने हाल के वर्षों में शिक्षाविदों के बीच बहुत चर्चा देखी है कि क्या व्याख्यान के ज़रिए पढ़ाना एक अवशेष की तरह है और यह तरीका डायनासोर की तरह ख़त्म हो जाएगा."

डेविस मानती हैं कि नया मीडिया नये कौशल सिखा सकता है, लेकिन व्याख्यानों की अपनी जगह है.

शिक्षक का अधिकार अब भी पवित्र है, इसे टेक स्पेक्ट्रम के सभी शिक्षाविद मानते हैं.

वर्जीनिया की अलेक्जांड्रिया सिटी के पब्लिक स्कूलों की चीफ़ टेक्नोलॉजी ऑफिसर एलिजाबेथ हूवर तकनीक के सहारे शिक्षा को बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं.

हूवर का कहना है कि वह शिक्षकों से मिलने वाले सीधे निर्देशों को कभी बंद नहीं करना चाहेंगी.

वह कहती हैं, "शिक्षक के साथ आमने-सामने की बातचीत आज भी क्लासरूम का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है."

हूवर तकनीक का पक्ष वहीं लेती हैं जहां ऑफलाइन तरीके से किसी पाठ को पढ़ाना असंभव हो.

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आर्थिक पहलू

शाद का भी कहना है कि कई शिक्षक तकनीक पर केवल इसलिए निर्भर हैं क्योंकि उनके पास पर्याप्त ऑफलाइन संसाधन उपलब्ध नहीं हैं.

अगर स्कूलों को अधिक वित्तीय सहायता उपलब्ध करायी जाए जिससे शिक्षक पिछड़ रहे छात्रों पर ध्यान केंद्रित कर सकें तो लेक्सिया जैसे प्रोग्राम की जरूरत ही न हो.

फिलाडेल्फिया की शिक्षक सोफिया डेट 12वीं क्लास में सामाजिक अध्ययन पढ़ाती हैं. वह भी शिक्षकों की जगह तकनीक पर पैसे खर्च करने पर सवाल उठाती हैं.

डेट कहती हैं, "कक्षाओं में तकनीक को बढ़ाने पर बहुत जोर है लेकिन यह बड़े और जरूरी सुधारों की कीमत पर हो रहा है. अनुदान देने वाले संस्थान टैब या लैपटॉप के लिए खुशी-खुशी पैसे दे देते हैं लेकिन वह एक साल के लिए एक शिक्षक को वेतन देने के लिए तैयार नहीं हैं."

डेट स्पष्ट करती हैं कि कम आय वर्ग के छात्रों के लिए तकनीक तक एक समान पहुंच बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन यह व्यवस्थागत बदलाव की जगह नहीं ले सकता.

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सोचना सीखो

तकनीक शिक्षा के कुछ पहलुओं को कम करती है, लेकिन यह छात्रों को सशक्त भी बनाती है.

पियर्सन से जुड़ीं चोकसी कहती हैं, "ऐसा मान लिया जाता है कि युवा थोड़े उदासीन हैं, थोड़े आलसी हैं और तकनीक ने उनको भटका रखा है."

"वास्तव में हम बच्चों की शिक्षा और सीखने के उनके तरीके को सशक्त करने में तकनीक की भूमिका को कम करके आंकते हैं."

मिसाल के लिए, शिक्षकों से सवाल पूछने और उत्तर पाने के लिए अधीर रहने वाले छात्र अब खुद से जवाब तलाश रहे हैं.

चोकसी कहती हैं, "बीजगणित का कोई सवाल हल करते वक़्त मुश्किल होने पर शिक्षक के पास जाने या टेक्स्ट बुक देखने से पहले संभव है कि वे यूट्यूब पर जाकर उस सवाल को हल करने का तरीका जान लें.

स्विफ्ट कहती हैं, "अंततः आप बच्चों से यही तो चाहते हैं कि वे नये सवाल पूछें, नये उत्तर तलाशें."

टेलर कहते हैं कि जैसे-जैसे सूचना सर्वव्यापी हो रही है, सफलता इस बात पर निर्भर नहीं करती कि आप सबसे ज़्यादा जानते हैं.

इसकी बजाय यह सूक्ष्मता और रचनात्मकता के साथ सोचने की क्षमता पर निर्भर करती है. विडंबना यह है कि डिजिटल मीडिया ध्यान भटकाकर इसी कौशल को कम करता है.

"यदि आप ज़करबर्ग, गेट्स औऱ सैंडबर्ग्स के बारे में सोचते हैं जो तकनीक की दुनिया में सफल हो गए तो उनकी सफलता कोड बनाने से नहीं थी, बल्कि यह इसलिए मिली क्योंकि वे सोच पाए."

डिजिटल दुनिया के बच्चे न्यू मीडिया को जोर-शोर से अपनाते रहेंगे. शिक्षकों के पास खुद को आगे लाने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं है.

उन्हें सुनिश्चित करना है कि नई तकनीक तक छात्रों की पहुंच हो और वे उनका फ़ायदा उठा सकें.

साथ ही, उन्हें मौलिक रूप से छात्रों को शिक्षित करना है जिससे वे लगातार विचलित करने वाली दुनिया में कामयाब हो सकें.

(बीबीसी कैपिटल पर इस स्टोरी को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. आप बीबीसी कैपिटल की बाकी ख़बरें यहां पढ़ सकते हैं.)

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