Abstract
19वीं शताब्दी की अत्याचार विरोधी अभियान और इसके नेता राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ जो कठोर जेहाद छेड़ा, उसके परिणाम-स्वरूप अन्ततः 1829 में सती प्रथा का पालन करने पर कानूनी प्रतिबन्ध लगा दिया गया। राजा राममोहन राय बहुविवाह के विरोधी थे और उन्होंने महिलाओं को जायदाद में हक देने पर भी जोर दिया। इसके अलावा अन्य सुधारकों- डी.एन.टैगोर, ईश्वर चन्द विद्यासागर, स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि ने महिला उत्थान के लिए कठिन प्रयत्न किए। इन समाज सुधारकों ने महिला शिक्षा पर विशेष बल दिया। इसके अलावा विधवा पुनर्विवाह पर बल देने और बाल विवाहों को रोकने के लिए इन्होंने जन आंदोलनों और जन चेतना का सहारा लिया। इन सुधारकों द्वारा किए गए लगातार प्रयत्नों के परिणामस्वरूप सरकार ने कड़े विरोध के बावजूद 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित किया। बाल विवाह के खिलाफ के.सी. सेन के प्रयत्नों से 1872 में सिविल मैरिज एक्ट बनाया गया। लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा के लिए कई अलग संस्थान भी खोले गए।
ऐसे ही समय में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में महिलाओं के पक्ष में राष्ट्रीय आंदोलन उठ खड़ा हुआ। महात्मा गाँधी ने सारे देश की महिलाओं को घर की चारदीवारी से उठकर बाहर आने के लिए पुकारा। उन्होंने प्रभात फेरियों और सत्यागृहों में हजार महिलाओं को एक साथ जोड़ा ताकि वे विचारों और भावनाओं का आदान-प्रदान कर सकें और आंदोलनों को एक ठोस जामा पहना सकें। वे महिलाओं और पुरुषों की समान भूमिका के पक्षधर थे। 1918 में यंग इंडिया में उन्होंने लिखा कि स्त्री, पुरुष की सहचरी है, जिसे पुरुष के समान ही व्यावसायिक क्षमता प्राप्त है। उसे पुरुषों की छोटी से छोटी गतिविधियों में भी हिस्सा लेने का हक है और उसे उतनी ही आजादी का अधिकार है, जितना पुरुष को है। सिर्फ एक मनगढ़त रिवाज के बल पर ही अज्ञानी और गुणविहीन पुरुष, महिलाओं से ऊँचा स्थान पा जाते हैं, जिसके कि वे हकदार नहीं होते।
20वीं शताब्दी की शुरूआत में गाँधी जी ने देश की आजादी की लड़ाई के साथ ही महिलाओं की आजादी और समानता की लड़ाई को भी जोड़ दिया, क्योंकि देश की इस आधी आबादी के मैदान में आए बिना राजनैतिक आजादी मिलना मुश्किल था। इस समय देश को जो प्रबल महिला नेता मिली उनमें सरोजिनी नायडू, राजकुमारी अमृत कौर, कमला देवी चट्टोपाध्याय, दुर्गाबाई देशमुख, धनवन्ति रामाराव आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इसी समय महिलाओं की संस्थाएँ भी शुरु हुई, जिनमें अखिल भारतीय महिला परिषद (1926), वीमन्स कौंसिल (1920) तथा राज्य स्तरीय संगठन जैसे गुजरात में ज्योति संघ (1934) और महाराष्ट्र में हिन्दू वीमन्स रेस्क्यू सोसाइटी (1927) व रतन टाटा इंडस्ट्रियूट (1938) प्रमुख है। (1917) से (1947) के बीच देश में कई महिला संगठनों का एक साथ उदय हुआ। इन सभी संगठनों की गतिविधियों भी विस्तृत थी। इससे महिला नेतृत्व में और अधिक निखार आ गया था। महिला उत्थान की गतिविधियों को भावनात्मक और सतर्कता से उठाया जाने लगा था। आजादी के राजनैतिक आंदोलन में महिलाओं के जुड़ जाने महिलाओं को नर्ह ताकत मिली थी। अब वे अपने उत्थान की लड़ाई का नेतृत्व स्वयं करने के काबिल हो गई थीं। इस तरह एक वास्तविक महिला आंदोलन शुरू हुआ। इन महिलाओं ने स्त्री पुरुष समानता को अपने आंदोलन का विषय बनाया क्योंकि असमानमा ही अब तक होने वाले अत्याचारों और हिंसा की जड़ थी। हालांकि, यह आंदोलन शुरू में देश के कोने-कोने तक नहीं पहुंचा और उच्च वर्ग की पढ़ी-लिखी महिलाएँ ही इसमें शामिल थी। दूसरे यह आजादी के राष्ट्रीय आंदोलन के साथ इस तरह घुल-मिल गया था कि इसे अलग से देख पाना मुश्किल था। बीसवीं शताब्दी की तीसरा दशक आते-आते तो देश में आजादी की लहर इतनी तीव्र हो गई थी कि किसी भी आंदोलन को अलग से उठा पाना न तो संभव था और न उचित ही था।