भारत के विदेशी व्यापार की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
⦁ अधिकांश भारतीय विदेशी व्यापार लगभग (90%) समुद्री मार्गों द्वारा किया जाता है। हिमालय पर्वतीय अवरोध के कारण समीपवर्ती देशों एवं भारत के मध्य धरातलीय आवागमन की सुविधा उपलब्ध नहीं है। इसी कारण देश का अधिकांश व्यापार पत्तनों द्वारा अर्थात् समुद्री मार्गों द्वारा ही किया जाता है।
⦁ भारत के निर्यात व्यापार का 27% पश्चिमी यूरोपीय देशों, 20% उत्तर अमेरिकी
देशों, 51% एशियाई एवं ऑस्ट्रेलियाई देशों तथा 2% अफ्रीकी देशों एवं दक्षिण अमेरिकी देशों में किया जाता है। कुल निर्यात का लगभग 40% भाग विकसित देशों को किया जाता है। इसी प्रकार आयात व्यापार में 26% पश्चिमी यूरोपीय देशों, 39% एशियाई एवं ऑस्ट्रेलियाई देशों, 13% उत्तरी अमेरिकी देशों तथा 7% अफ्रीकी देशों का स्थान है।
⦁ यद्यपि भारत में विश्व की 17.5% जनसंख्या निवास करती है, परन्तु विश्व व्यापार में भारत का भाग 0.67% है, जबकि अन्य विकसित एवं विकासशील देशों की भाग इससे कहीं अधिक है।
⦁ भारत का व्यापार सन्तुलन सदैव भारत के विपक्ष में रहा है। इसका प्रमुख कारण यह है कि भारत के आयात की मात्रा निर्यात से सदैव अधिक रहती है। परिणामस्वरूप विदेशी व्यापार का सन्तुलन प्रायः भारत के विपक्ष में रहती है।
⦁ देश का अधिकांश विदेशी व्यापार मात्र 35 देशों (कुल 190 देश) के मध्य होता है जो विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के आधार पर किया जाता है। भारत का सर्वाधिक विदेशी व्यापार संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ है।
⦁ भारत के विदेशी
व्यापार में खाद्यान्नों के आयात में निरन्तर कमी आयी है, जिसका प्रमुख कारण खाद्यान्न उत्पादन में उत्तरोत्तर वृद्धि का होना है। वर्ष 1989-90 से देश खाद्यान्नों को निर्यात करने की स्थिति में आ गया था, परन्तु वर्ष 1993-94 से पुनः देश को खाद्य-पदार्थ-गेहूं और चीनी-विदेशों से आयात करने पड़ रहे हैं।
⦁ भारत अपनी विदेशी मुद्रा के संकट का हल अधिकाधिक निर्यात व्यापार से ही कर सकता है; अतः उन्हीं कम्पनियों को आयात की छूट दी जाती है, जो निर्यात करने की स्थिति में हैं।
⦁
भारत के आयातों में मशीनरी, खनिज तेल, उर्वरक, रसायन तथा कपास की अधिकता रहती है और निर्यातों में हीरे-जवाहरात, चमड़ा, सूती वस्त्र व खनिज पदार्थों का मुख्य स्थान है।
⦁ स्वतन्त्रता के पूर्व भारत अधिकतर कच्चे माल का निर्यात और पक्के माल (अधिकतर उपभोग वस्तुओं) का आयात करता था। स्वतन्त्रता के बाद उद्योग-धन्धों का विकास होने के कारण भारत द्वारा अब पक्के माल का भी पर्याप्त निर्यात किया जा रहा है। इसके आयात किये गये पक्के माल में अब अधिकतर मशीनें होती हैं। इसके साथ ही भारत में
औद्योगिक विकास में वृद्धि होते रहने के कारण कच्चे माल का आयात भी बढ़ रहा है।
विदेशी व्यापार से क्या तात्पर्य है ?
विदेशी व्यापार का महत्व
विदेशी व्यापार का अर्थ विश्व के अन्य देशों के साथ व्यापार करने से है। किसी देश की अर्थव्यवस्था में विदेशी व्यापार का महत्वपूर्ण स्थान होता है।
विदेशी व्यापार का महत्व निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट है।
1. प्राकृतिक संसाधनों का अनुकूलतम प्रयोग होता है ।
2. आधिक्य या अधिशेष का निर्यात कर सकता।
3. आधुनिक प्रविधि का आयात-निर्यात कर सकता है।
4.निर्मित व कच्चे माल का आयात व निर्यात कर सकता है।
5. निर्यात से भारत को विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है ।
6. विश्व के अन्य देशों के साथ आर्थिक और राजनीतिक सम्बन्धों में सुधार होता है ।
स्वतंत्रता के उपरान्त भारत का विदेशी व्यापार
स्वतंत्रता के पश्चात् नियोजित आर्थिक विकास हेतु किए गए प्रयासों के तारतम्य में देश के विदेशी व्यापार की मात्रा, निर्यात की जाने वाली वस्तुओं की संख्या तथा उनकी गुणवत्ता में सुधार कर में निर्यात को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया गया तथा आयात को नियंत्रित किया गया।
भारत के विदेशी व्यापार की संरचना या स्वरूप
- विदेशी व्यापार की संरचना से आशय वस्तुओं के आयात एवं निर्यात से है । वस्तुतः विदेशी व्यापार की संरचना का अर्थ है कि किस मात्रा में और किन-किन वस्तुओं का आयात अथवा निर्यात होता है । जिन वस्तुओं की पूर्ति हम विदेशों से करते हैं उसे आयात कहते है तथा जिन वस्तुओं की पूर्ति हम विदेशों को करते हैं उसे निर्यात कहते है।
ब्रिटिश शासन के दौरान भारत के विदेशी व्यापार का स्वरूप औपनिवेशिक था। इस अवधि में भारत के विदेशी व्यापार संरचना की निम्नलिखित दो प्रमुख विशेषताएँ थी -
- 1. भारत के कच्चे माल का निर्यात होता था ।
- 2. भारत निर्मित माल का आयात करता था ।
भारत के निर्यात एवं आयात की संरचना
भारत के निर्यात एवं आयात की संरचना |
1. पारम्परिक वस्तुएँ:
- पटसन तथा पटसन से निर्मित वस्तुएँ, कपास तथा कपास से निर्मित वस्तुएँ, चाय, तिलहन, चमड़े आदि पारम्परिक वस्तुएँ कहलाती है।
2. गैर-पारम्परिक वस्तुएँ:
- इंजीनियरिंग वस्तुएँ, हस्तकला की वस्तुएँ, मोती, बहुमूल्य पत्थर, जेवर एवं जवाहरात, लोहा एवं इस्पात, रसायन, बने-बनाए पोशाक, चीनी, मछली, काजू, काफी आदि को गैर-पारम्परिक वस्तुएँ कहते हैं ।
3. उपभोक्ता वस्तुएँ:
- वे वस्तुएँ जिनका प्रत्यक्ष रूप से उपभोक्ता एवं सरकार के द्वारा उपभोग किया जाता है जैसे कागज, भोजन सामग्री, बिजली का सामान एवं औषधियाँ आदि ।
4. कच्चा माल एवं मध्यवर्ती वस्तुएँ:
- वे वस्तुएँ जिसका उपयोग उत्पादक एवं सरकार के द्वारा अन्य वस्तुओं के उत्पादन में लगाया जाता है या बेचने के लिए खरीदा जाता है | उदाहरण के लिए खनिज तेल, कच्चा माल, रंग और रसायन, पटसन, गेहूँ, इत्यादि ।
5. पूँजीगत वस्तुएँ:
- उत्पादन के उत्पाद साधन के संचय (stock of produced menas of production) को पूँजीगत वस्तु कहते हैं जो अन्य वस्तुओं के उत्पादन एवं मूल्य वृद्धि (value) में योगदान देते है। इन वस्तुओं के अन्तर्गत लेखांकन या वित्तीय वर्ष के अन्त में शेष वस्तुएं तथा इनके उत्पादन में वृद्धि करने वाले उत्पादन के साधनों को सम्मिलित किया जाता है। ये वस्तुएँ है प्लाण्ट और यंत्र, कच्चे माल का संचय, परिवहन आदि ।