💐💐 अंधेर नगरी 💐💐
◆ नाटककार :- भारतेंदु हरिश्चन्द्र
◆ प्रकाशन :- 1881 ई.
◆ शैली:- हास्य-व्यंग्य
◆ एक प्रकार का प्रहसन
◆ अंक :- 6 अंक
◆ आधार नाटक की रचना बिहार के रजवाड़े की गई है।
◆ लेखक ने इस नाटक को एक ही रात में लिखकर पूरा किया।
◆ ‘हिन्दू नेशनल थिएटर’ नामक एक रंग संस्था में आरंभ हुआ था।
◆ नाटक के प्रमुख पात्र :-
1. महंत (नारायणदास और गोबरधनदास के गुरु)
2. नारायणदास, (महंत का शिष्य)
3. गोबरधनदास, (महंत का लोभी शिष्य)
◆ नाटक के अन्य पात्र :-
√ बाजार के पात्र :-
1. कबाबवाला (मसाला बेचने वाला)
2. घासीराम (चना बेचने वाला),
3. नारंगीवाला
4. हलवाई
5. कुंजड़िन (सब्जी बेचने वाली),
6. चुरनवाला
7. मछलीवाली
8. बनिया
9. पाचकवाला (चूरन विक्रेता)
10. मुगल (मेवे बेचने वाला)
11. जातवाला (जाति बेचने वाला)
12. ब्राह्मण
√ दरबार के पात्र :-
1. राजा
2. मंत्रीगण
3. सेवक
√ नगर के पात्र :-
1. कल्लू कारागीर
2. चूनेवाला
3. भिश्ती
4. कस्साई
5. गड़ेरिया
6. कोतवाल
7. पहला प्यादा
◆ नाटक का विषय :-
★ मूल्यहीन, अमानवीय और अराजक व्यवस्था प्रणाली का चित्रण
★ न्याय व्यवस्था की विसंगति
★ सामाजिक विकृति का चित्रण
★ अंग्रेजों के समय के समाजिक और व्यवसायिक स्थिति का चित्रण
★ अंग्रेजी शासन की दुरव्यवस्था और न्याय के ढोंग का पर्दाफाश
★ बाजार विज्ञापनों के जरिए कुरुपता का चित्रण
★ जन चेतना को जगाया
★ मूल्यहीन शासन व्यवस्था ज्ञान और अज्ञान की टकराहट
★ नाटक की दृश्य योजना :-
Trick :- प्रांत से बाजरा अरण्य की शाम को लेकर आना।
1. पहला अंक :- बाह्य प्रांत
2. दुसरा अंक :- बाजार
3. तीसरा अंक :- जंगल
4. चौथा अंक :- राजसभा
5. पांचवां अंक :- अरण्य
6. छठा अंक :- श्मशान
★ नाटक की गीत योजना :-
(1.) राम भजो राम भजो राम भजो भाई ।
राम के भजे से गनिका तर गयी,
राम के भजे से गीध गति पायी।
राम के नाम से काम बनै सब,
राम के भजन बिनु सबहि नसाई ।
राम के नाम से दोनों नयन बिनु,
सूरदास भए कबिकुल राई ।
राम के नाम से घास जंगल की,
तुलसीदास भय भजि रघुराई ।
(प्रथम अंक से ,महन्त जी दो चेलों के
साथ गाते हैं)
(2.) बहुत लोभ मत करना । देखना, हाँ— लोभ पाप का मूल है, लोभ मिटावत मान । लोभ कभी नहिं कीजिये, या मैं नरक निदान।। (प्रथम अंक, महंत )
(3.) कबाब गरमागरम मसालेदार – चौरासी मसाला
बहत्तर आँच का – कबाब गरमागरम मसालेदार-
खाय सो होंठ चाटै, न खाय सो जीभ काटै । कबाब लो, कबाब का ढेर – बेचा टके सेर।
(दुसरे अंक से ,कबाबवाला गाता है)
(4.) चने जोर गरम
–
चने बनावै घासी राम।
जिनकी झोली में दूकान ।।
चना चुरमुर चुरमुर बोलै ।
बाबू खाने को मुँह खोलै॥
चना खावै तौकी, मैना’।
बोलैं अच्छा बना चबैना ।।
चना खायँ गफूरन’, मुन्नी’ ।
बोलैं और नहीं कुछ सुन्ना।।
चना खाते सब बंगाली।
जिनकी धोती ढीली ढाली ।।
चना खाते मियाँ जुलाहे ।
डाढ़ी हिलती गाह बगाहे ।।
चना हाकिम सब जो खाते।
सब पर दूना टिकस लगाते।।
चने जोर गरम —टके सेर।
(दुसरे अंक से ,घासीराम गीत गाता है)
(5.) नारंगी ले नारंगी सिलहट’ की नारंगी,
बुटवल की नारंगी। रामबाग की नारंगी,
आनन्दबाग की नारंगी । भई नीबू से
नारंगी। मैं तो पिय के रंग न रँगी।
मैं तो भूली लेकर संगी। नारंगी ले नारंगी।
कँवला नीबू’, मीठा नीबू, रंगतरा, संगतरा।
दो हाथों लो नहीं पीछे हाथ ही मलते रहोगे।
नारंग ले नारंगी। टके सेर नारंगी ।
(दुसरे अंक से ,नारंगीवाली गाती है)
(6.) जलेबियाँ गरमागरम ले सेब इमरती लड्डू गुलाबजामुन खुरमा बुन्दिया बरफी समोसा पेड़ा कचौड़ी दालमोट पकौड़ी घेवर गुपचुप । हलुवा ले हलुआ मोहनभोग। मोयनदार कचौड़ी कचाका हलुआ नरम चभाका’। घी में गरक, चीनी में तरातर, चासनी में चभाचभ ले भूर का लड्डू। जो खाय सो भी
पछताय, जो न खाय सो भी पछताया। रेवड़ी कड़ाका पापड़ पड़ाका । ऐसी जात हलवाई जिसके छत्तीस कौम हैं भाई। जैसे कलकत्ते के विलसन, मन्दिर के भितरिए, वैसे अन्धेर नगरी के हम। सब सामान ताजा। खाजा ले खाजा टके सेर खाजा ।
(दुसरे अंक से ,हलवाई वाला गीत गाता है)
(7.) ले धनिया मेथी-सोआ पालक चौराई बथुआ करेमू
नोनियाँ कुलफा कसारी चना सरसों का साग । मरसा ले मरसा। ले बैगन लौआ कोहड़ा आलू अरुई बण्डा नेनुआ सूरन रामतरोई मुरई। ले आदी मिरचा लहसुन
पियाज टिकोरा । ले फालसा खिन्नी आम अमरूद निबुआ मटर होरहा। जैसे काजी वैसे पाजी। रैयत राजी टके सेर भाजी । ले हिन्दुस्तान का मेवा फूट और बैर
(दुसरे अंक से ,कुँजड़िन गीत गाता है)
(8.) बादाम पिस्ते अखरोट अनार बिहीदाना मुनक्का
किशमिश अंजीर आबजोश’ आलूबोखारा चिलगोजा
सेब नाशपाती बिही सरदा’ अंगूर का पिटारी । आमारा ऐसा मुल्क जिसमें अंगरेज का भी दाँत कट्टा ओ गया। नाहक को रुपया खराब किया।
बेवकूफ बना ।
हिन्दोस्तान का आदमी लकलक
हमारे यहाँ का आदमी बुंबुक बुंबुक। लो सब
मेवा टके सेर ।
(दुसरे अंक से ,मुगल गीत गाता है)
(9.) चूरन अमलबेत का भारी ।
जिसको खाते कृष्ण मुरारी ।।
मेरा पाचक है पचलोना।
जिसको खाता श्याम सलोना।।
चूरन बना मसालेदार।
जिसमें खट्टे की बहार।।
मेरा चूरन जो कोई खाय।
मुझको छोड़ कहीं नहिं जाय।।
हिन्दू चूरन इसका नाम।
बिलायत पूरन इसका काम।।
चूरन जब से हिन्द में आया।
इसका धन बल सभी घटाया।
चूरन ऐसा हट्टा-कट्टा ।
कीना दाँत सभी का खट्टा’ ।।
चूरन चला दाल की मण्डी।
इसको खायेंगी सब रण्डी ।।
चूरन अमले सब जो खावैं।
दूनी रिश्वत तुरत पचावैं ।।
चूरन नाटकवाले खाते।
इसकी नकल पचाकर लाते ।।
चूरन सभी महाजन खाते।
जिससे जमा हजम कर जाते ।।
चूरन खाते लाला लोग।
जिसको अकिल अजीरन रोग।।
चूरन खावैं एडिटर जात ।
जिनके पेट पचै नहिं बात ।।
चूरन साहेब लोग जो खाता।
सारा हिन्द हजम कर जाता।।
(दुसरे अंक से ,पाचकवाला गीत गाता है)
(10). मछरी ले मछरी ।
मछरिया एक टके कै बिकाय।
लाख टका के बाला जोबन गाहक सब
ललचाय ।।
नैन-मछरिया रूप- जाल में, देखत ही फँसि जाय।।
बिनु पानी मछरी सो बिरहिया, मिलै बिना अकुलाय ।।
(दुसरे अंक से ,मछलीवाली गीत गाती है)
(11.) जात लें जात, टके सेर जात । एक
टका दो, हम अभी अपनी जात बेचते हैं। टके के वास्ते ब्राह्मण से धोबी हो जायँ और धोबी को ब्राह्मण कर दें, टके के वास्ते जैसी कहो वैसी व्यवस्था दें। टके के वास्ते झूठ को सच करें। टके के वास्ते ब्राह्मण से मुसलमान, टके के वास्ते हिन्दू से
क्रिस्तान। टके के वास्ते धर्म और प्रतिष्ठा दोनों बेचें, टके के वास्ते झूठी गवाही दें। टके के वास्ते पाप को पुण्य मानें, टके के वास्ते नीच को भी पितामह बनावें | वेद धर्म कुल- मरजादा सचाई बड़ाई सब टके सेर । लुटाय दिया अनमोल माल। ले टके सेर।
(दुसरे अंक से ,ब्राह्मण गीत गाती है)
(12.) सेत सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास।
ऐसे देस कुदेस में, कबहुँ न कीजै बास ।।
कोकिला वायस’ एक सम, पण्डित मूरख एक। इन्द्रायन दाड़िम’
विषय, जहाँ न नेकु विवेक ।। बसिये ऐसे देस नहिं, कनक-वृष्टि जो होय । रहिये तो दुख पाइये, प्रान दीजिये रोय ।।
( महन्त का दोहा)
(13.) अन्धेर नगरी अनबूझ राजा ।
टका सेर भाजी टका सेर खाजा ।।
नीच ऊँच सब एकहि ऐसे।
जैसे भँडुए पण्डित तैसे।।
कुल- मरजाद न मान बड़ाई।
सबै एक से लोग-लुगाई ।।
जात-पाँत पूछे नहिं कोई ।
हरि
को भजै सो हरि को होई ।।
बेश्या जोरू एक समाना।
बकरी गऊ एक करि जाना ।।
साँचे मारे मारे डोलैं।
छली दुष्ट : सिर चढ़ि चढ़ि बोलें ।।
प्रगट सभ्य अन्तर छलधारी ।
सोई राजसभा बल भारी ।।
साँच कहैं. ते पनही खावैं ।
झूठे बहु बिधि पदवी पावैं ।।
छलियन के एका के आगे।
लाख कहौ एकहु नहिं लागे ।।
भीतर होइ मलिन की कारो।
चहिए बाहर रंग चटकारो।।
धर्म अधर्म एक दरसाई।
राजा करे सो न्याव सदाई ।।
भीतर स्वाहा बाहर सादे ।
राज करहिं अमले अरु प्यादे ।।
अन्धाधुन्ध मच्यौ सब देसा।
मानहुँ राजा रहत विदेसा।।
(पाँचवाँ अंक से,गोबरधनदास गीत गाते हैं,राग काफी)
◆ नाटक का सारांश :-
1. पहला अंक :- बाह्य प्रांत
★ इस नाटक की शुरुआत एक महंत अपने दो शिष्यों (चेलों) के साथ राम का भजन करते हुए नगर में प्रवेश करता है।
★ उनके शिष्यों के नाम गोवर्धनदास और नारायण दास हैं। वे भी अपने गुरु के साथ भजन रहे हैं। करते हैं वह नगर बहुत ही सुंदर है वहाँ के लोग बड़े ही प्रसन्न और सम्पन्न इन्हें लगते हैं।
★ गुरु महंत अपने शिष्यों को नगर में भिक्षा माँगने भेजता है।
★ गुरु की आज्ञा से गोवर्धनदास पश्चिम दिशा की ओर और नारायणदास पूर्व दिशा की ओर भिक्षा माँगने के लिए जाते हैं।
★ गोवर्धनदास अपने गुरु को जाते-जाते कहता है कि बहुत सी भिक्षा प्राप्त करके वापिस लौटूंगा।
★ गुरु उसे समझाते है कि अधिक लालच नहीं करना नहीं चाहिए।
★ लालच के कारण ही पाप बढ़ता है।
★लालच से पाप और मान दोनों मिट जाते हैं।
★ गुरु महंत अपने शिष्य को कहते है कि लालच व्यक्ति को नरक तक ले जाता है।
★ हमें भिक्षा में सिर्फ पेट भरने इतना ही अनाज चाहिए और इतना ही अनाज वे चाहते है।
2. दुसरा अंक :- बाजार
★ बाजार में तरह-तरह का माल बेचनेवाले अपने-अपने ढंग से ग्राहक को आकर्षित कर रहे हैं।
★ ग्राहक को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए गीतों का सहारा लिया गया है।
★ कबाबवाला अपने कबाबों की अतिश्योक्तिपूर्ण प्रशंसा कर रहा है।
★ मसालेदार भुने हुए चने बेचनेवाला घासीराम अपने चने गा-गाकर बेच रहा है उस झोली ही उसकी दुकान है।
★ उसके माल को हर कोई वर्ग के लोग खरीद हैं।
★नारंगी बेचनेवाली भी अपने ढंग से नारंगी बेच रही है। वह नींबू, संतरा आदि चीजें बेच रही है।
★ एक हलवाई जो जलेबी, गुलाब जामुन, खुरमा, बुंदिया, बर्फी, समोसा, लड्डू आदि कई तरह की मिठाइयाँ टके सेर भाव ही बेच रहा है। वह टके से खाजा बेचता है।
★ एक कुंजड़िन धनिया, पालक, चौलाई, कलप्पा, सरसों, बैंगन, आलू, बुथुआ आदि सब्जियाँ टके बेच रही है।
★एक मुगल अखरोट, मनुक्का, किशमिश, आलू बुखारा नाशपाती आदि चीजें टके सेर ही बेच।
★ उस मुगल का मानना है कि भारतीय लोग दुबले-पतले और कमजोर हैं जबकि उसके देशवासी शक्तिशाली और सुदृढ़ हैं।
★ चूरनवाला अपने विशेष ढंग में चूरन बेच रहा है। उसके चूरन का सभी लोगों को अनुकूल प्रभाव पड़ता दिखाई देता है।
★ वह अपने गीतों में व्यंग्य का प्रयोग कर रहा है। जिसमें वह कहता है कि उसका चूरन से रिश्वत जल्दी पच जाती है।
★ महाजन दूसरों का धन हजम कर जाते हैं, पुलिसकर्मी कानून को हजम कर जाते हैं और अंग्रेज तो सारे देश को ही हजम कर गए हैं।
★ मछली बेचनेवाली टके सेर ही मछली बेच रही है।
★ धर्म का ठेकेदार ब्राह्मण ‘धर्म’ का ही टके सेर के भाव से व्यापार कर रहा है।
★ एक बनिया भी अपना माल टके सेर बेच रहा है। आटा, दाल, नमक-मसाला, घी, चावल आदि सबी चीजें टके सेर ही बेची जा रही हैं।
★गोवर्धनदास यह देखकर दंग रह जाता
है। उसे विश्वास नहीं हो है इसलिए बार-बार वह उन दुकानदारों से पूछ रहा है उसे बाजार के दुकानदारों से मालुम होता है कि इस नगर का नाम ‘अंधेर नगरी है और वहाँ के राजा का नाम चोपट्ट है।
★ गोवर्धनदास ने अभी तक भिक्षा में जो सात रुपये प्राप्त किये थे। उन पैसों से वह हलवाई से साढ़े तीन सेर मिठाई खरीद लेता है ताकि वह अपने गुरु के साथ मिलकर खा सके।
तीसरा अंक
भिक्षा प्राप्ति के बाद गुरु महंत और उनके शिष्य वर्धनदास और नारायणदास एकत्र मिलते हैं। महंत और शिष्य नारायण ‘राम भजो गायन करते हैं लेकिन गोवर्धनदास का भजन अब चूका है वह नगरी से प्रभावित होकर उसी का गायन कर रहा है। गुरु महंत जी अपने गोवर्धनदास की गठरी (झोली) को देखकर पूछते हैं कि इस भारी गठरी में क्या
मठाई खराद लता है ताकि वह अपने गुरु के साथ मिलकर खा सक
3. तीसरा अंक :- जंगल
★ भिक्षा प्राप्ति के बाद गुरु महंत और उनके शिष्य नारायणदास एकत्र मिलते हैं।
★ महंत और शिष्य नारायणदा ‘राम भजो’ का गायन करते हैं लेकिन गोवर्धनदास का भजन अब चूका है।
★ वह अंधेर नगरी से प्रभावित होकर उसी का गायन कर रहा गुरु महंत जी अपने शिष्य गोवर्धनदास की गठरी(झोली) को देखकर पूछते हैं कि इस भारी गठरी में क्या है?
★ गोवर्धनदास बताता है कि इसमें साढ़े तीन सेर मिठाई है।
★ जो भिक्षा से सात रुपये प्राप्त किये थे। उन पैसों से टके सेर के हिसाब से मैंने यह मिठाई लाई है।
★ गुरु को विश्वास नहीं होता कि मिठाई इतनी सस्ते दाम पर मिल रही हैं। तब शिष्य उन्हें बताता है कि, अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।
★ शिष्य की बात सुनकर गुरु अपने शिष्य को सलाह देते हैं कि इस अँधेरे नगरी में रहना उचित नहीं है, जहाँ सब एक ही भाव में मिलता हो अर्थात सब टके सेर भाजी और टके सेर खाजा मिलता है।
★ जहाँ प्रत्येक सफेद वस्तु को समान महत्त्व दिया जाता हो, वह अधिक समय तक रहना उचित नहीं है।
★ कपास और कपूर दोनों ही सफेद होते है लेकिन दोनों के गुणों में अंतर होता है।
★ जिस जगह पर गुणी-अवगुणी में कोई पहचान नहीं है वहाँ रहना खतरे से खाली नहीं हैं।
★ कौवा और कोयल दोनों दिखने में काले हैं लेकिन दोनों के गुणों में अंतर है।
★ लाल रंग कड़वा फल इन्द्रायण और अनार देखने में चाहे एक से हो लेकिन उसे पहचानने का परख ने का गुण मनुष्य को होना चाहिए।
★ लोगों को थोडा-सा भी विवेक नहीं है कि यह स्थान रहने के योग्य नहीं है।
★ चाहे वह स्थान कितना भी धन-धान्य और सम्पन्नता से पूर्ण न हो ऐसी जगह चाहे हजार मन मिठाई मुफ्त में मिलती हो तो भी वहाँ नहीं रहना चाहिए।
★ गुरु महंत की बात गोवर्धन को पसंद नहीं आती है।
★ उसके मन में इस नगर के प्रति यहाँ सुख-सुविधाओं के प्रति लालच निर्माण होता है।
★ उसे इस नगर में सुख का अनुभव होने लगता है।
★ गुरु अपने शिष्य नारायणदास को लेकर चले जाते है।
★ गोवर्धनदास उसी नगरी में रुक जाता है।
★ गुरु अपने शिष्य गोवर्धनदास को जाते – जाते कुछ सलाह भी दे जाते हैं कि यदि कभी कठिनाई आये तो उन्हें याद करे ताकि उसकी सहायता कर सकें।
4. चौथा अंक :- राजसभा
★ राजसभा में मंत्री, नौकर आदि सभी अपने-अपने स्थान पर विराजमान हुए हैं।
★ नशे में चूर है और राज सेवक उसे शराब पिला रहा है।
★ राजा मूर्ख जो अपने सेवक को अकारण देना चाहता है जो मंत्री की सजगता बच जाता है।
★ मंत्री उसकी जी-हजुरी करनेवाला है।
★ दरबार में उपस्थित सभी लोग मूर्ख हैं लेकिन राजा तो सबसे बढ़कर मूर्ख है, वह अविवेकी, नीच, डरपोक, बुद्धहीन है।
★ उसी समय एक व्यक्ति दरबार में शिकायत लेकर उपस्थित होगा है कि कल्लू बनिया की दीवार गिर जाने से उसकी बकरी कुचलकर मर गई है। इसलिए वह न्याय माँगने आया है।
★ अपराधी दंड मिलना चाहिए इसके लिए राजा से कहता है।
★ राजा अपनी मूर्खता का परिचय देता हुआ न्याय करता है और कहता है कि दीवार को गिरफ्तार किया जाए।
★ दीवार को सजा देना या गिरफ्तार करना संभव नहीं है।
★ इस कारण उससे संबंधित कई लोगों को दरबार में बुलाया जाता है।
★ जिसमें बनिया, कारागीर, चूना बनानेवाला, भिश्ती, कसाई, गडरिया और कोतवाल को राजा के सामने लाया जाता है।
★ हर कोई अपना दोष दूसरे के माथे पर मढ़ते हैं और स्वयं को निर्दोष सिद्ध करते जाते हैं।
★ मूर्ख राजा अपनी मूर्खता का परिचय देता हुआ कोतवाल को फाँसी की सजा सुना देता है और स्वयं मंत्री का सहारा लेकर वहाँ से चला जाता है।
★ राजा किसी की भी शिकायत करनेवाले की नहीं सुनता, नही समस्या को समझता हैं।
★ जिससे वह न्याय नहीं कर पाता। अपराधी को दंड देने के बजाय एक निरपराधी को फाँसी की सजा सूना देता है।
5. पांचवां अंक :- अरण्य
★ गोवर्धनदास वही उसी नगर में मिठाई खा खाकर बहुत ही मोटा हो जाता हैं।
★ वह आनन्द से जीवन व्यथित कर रहा है। खाना-पीना, सोना गाना आदि उसके काम है।
★ वह अपने गाने में उस राज्य व्यवस्था का वर्णन करता है।
★ वहाँ ऊँचे से लेकर नीचे तक सभी लोग एक तरह के हैं।
★ सब लोग विवेक शून्य हैं, वे बुद्धि से रहित हैं।
★ इस नगर में पापी और पुण्यात्मा में अंतर नहीं है।
★ पाप – पुण्य में वहाँ कोई भेद नहीं है।
★ मूर्ख राजा के प्रति प्रजा भी अंध भक्ति करती है।
★ वह जो कुछ भी करता है, कहता है सब चुपचाप सुन लेते हैं।
★ राजा ही ईश्वर का अवतार है ऐसा मानते का कहना है कि राजा कभी भी अन्याय नहीं कर सकता है।
★ संपूर्ण अन्याय का बोलबाला है, राजा के कर्मचारी बुरे आचरण वाले तड़क-भड़क से रहते हैं।
★ वे सामान्य जनता पर मनचाहा अत्याचार करते फिर भी राजा उन्हें कुछ भी कहता और प्रजा कुछ कह ही नहीं सकती।
★ वे मनमानी करते रहते हैं जिस कारण संपूर्ण राज आतंक – सा छाया हुआ रहता है।
★ जांति-पांति का कोई महत्त्व नहीं है और गाय
बकरी को एक ही समान माना जाता है।
★ जो सच बोलता है उसे जूते खाने पड़ते हैं और जो झूठा है वह पदवी प्राप्त करता है।
★ यहाँ सब को एक ही लाठी से हाँका जाता है।
★ इस राज्य में विवेकहीनता यहाँ तक पहुँच गई है कि वेश्या और पत्नी को समान माना जाता है अर्थात उनमें कोई अंतर नहीं है।
★ सर्वत्र धोखेबाज और कपटी लोगों का ही वर्चस्व बढ़ गया है।
★ इतना होने पर भी गोवर्धनदास प्रसन्न है क्योंकि उसे खूब खाने को यहाँ मिलता है।
★ उसे लगता है कि गुरुजी के साथ न जाकर उसने बहुत अच्छा किया।
★ तभी चार सिपाही आकर उसे पकड़ लेते हैं और कहते हैं कि उसे फाँसी के फंदे पर लटकाया जाने वाला है।
★ सिपाही उसे बताते है कि कोतवाल को फाँसी दी जानी वाली थी लेकिन फाँसी का फंदा बड़ा होने के कारण उसमें कोतवाल की गर्दन पूरी तरह नहीं आ रही थी क्योंकि उसका शरीर पतला है।
★ इस कारण गोवर्धनदास मोटा है इसलिए उसकी गर्दन उस फंदे में आ जायेगी।
★ इस राज्य में साधू-महात्माओं की ही सबसे बड़ी दयनीय अवस्था है।
★ राजा के न्याय के डर से कोई सुख से नहीं रह पाता और मोटा होता ही नहीं है।
★ गोवर्धनदास स्वयं को असहाय पाता है।
★ उसे अपने गुरु के कहे हुए वचन याद आते हैं। वह अपनी सहायता के लिए के लिए चिल्लाता है, रोता है। लेकिन सिपाही उसकी एक नहीं सुनते और उसे बलपूर्वक पकड़ कर ले जाते हैं।
6. छठा अंक :- श्मशान
★ राजा के आदेशानुसार सिपाही गोर्वधनदास को पकड़कर श्मशान ले जाते है ताकि उसे फांसी पर लटकाया जाए।
★ वह बहुत विनय – अनुनय करता है, लेकिन
लेकिन सिपाही उसे नहीं छोड़ते है।
★ तभी महंत गुरुजी अपने शिष्य नारायणदास को लेकर वहाँ आ जाते है। अपनी शिष्य धीमे स्वर में कुछ कहते हैं।
★ इस शुभ खड़ी में को फाँसी पर चढ़ेगा वह सीधा स्वर्ग चला जाएगा।
★ इस बात पर गुरु शिष्य दोनों आपस में लड़ने लगते हैं।
★ पहले मैं फॉसी पर चढूंगा यह दोनों कहते हुए विवाद करने लगते हैं। इतने में वहाँ राजा आता है।
★ किस बात पर विवाद हो रहा है यह सुनकर कोतवाल, मंत्री आदि अर्थात हर कोई फाँसी पर चढ़ने के लिए तैयार है।
★ राजा फिर कहता है मैं यहाँ का राजा हूँ, तो पहले मैं ही फॉसी पर चढूगा अपने सैनिकों को फांसी देने की आज्ञा देता है।
★ अंधेर नगरी के इस विवेक शून्य राजा का अंत हो जाता है।
◆ नाटक के महत्वपूर्ण बिन्दु :-
★ लेखक ने इस नाटक के माध्यम से तत्कालीन परिस्थितियों पर व्यंग्य किया है। जिसमें शासक, प्रजा और सामान्य मनुष्य की मूल्यहीनता का यथार्थ में चित्रण किया है।
★ “अन्धेर नगरी राज्य की अन्धेरगर्दी की आलोचना ही नहीं, वह इस अन्योरगर्दी को खत्म करने के लिए भारतीय जनता की प्रबल इच्छा भी प्रकट करता है। इस तरह भारतेन्द्र ने नाटकों को जनता का मनोरंजन करने के साथ उसका राजनीतिक शिक्षण करने का साधन भी बनाया। इसके गति और हास्य भरे वाक्य लोगों की जुबान पर चढ़ गए हैं और भारतेन्द्र की प्रहसनकला यहाँ अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देती है। ” (रामविलास शर्मा का कथन)
★ सन् 1960 में इसे प्रहसन के रूप में मंचित किया गया था।
★ “डॉ० लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय,” ने इसे सामान्य प्रहसन और निरुद्देश्य रचना मानकर इसकी समीक्षा की थी।
★ “भारतेंदु ने अंधेर नगरी यह दिखाया है कि पुरानी लोक संस्कृति के रूपों को राजनीतिक चेतना फैलाने के लिए किस तरह इस्तेमाल किया जाना चाहिए।” (रामविलास शर्मा का कथन)
★ “यह नाटक इस अर्थ से समकालीन नाटक है कि यह किसी भी समय के अन्याय, अनाचार, भ्रष्टाचार, विवेक-शून्यता और मनमानेपन पर रोशनी डालता है। इस प्रहसन में व्यंग्य के माध्यम से जो कुछ भी कहा गया है, उतना ही अधिक कहने की गुंजाइश भी है। रंगकर्मी और कुशल निर्देशक इस नाटक में
बहुत कुछ समावेश कर सकने की क्षमता का इस्तेमाल करके अपने समय की समस्याओं को रेखांकित करते हुए उसका उत्तर खोज सकते हैं।”
(सत्यप्रकाश मिश्र का कथन)
★ अंधेर नगरी’ में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने दिखाया है कि जिस राज्य में गुण अवगुण का भेद नहीं, वहाँ प्रजा का राजा की मूर्खता के चंगुल में फँस जाने का डर बना रहता है।
★ बिहार प्रांत के किसी जमींदार के अन्यायों को लक्ष्य कर उसे सुधारने के लिए इसकी रचना हुई थी।
★ उन्होंने प्रहसन का ऐसा आख्यान निकाला जो ग्रामीण जनता को रूचिकर भी हो और लोगों की रूचि को परिमार्जित भी कर सके।
★ इस प्रहसन की शैली इतनी सरल है कि साधारण से साधारण व्यक्ति भी अपना मनोरंजन करने के साथ-साथ शिक्षा ग्रहण कर सकता है।
★ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने विदेशी शासन और उसके खुश भारतवासियों पर व्यंग्य किये हैं।
★ ‘अंधेर नगरी’ में एक ओर हास्य-व्यंग्य का भरपूर समावेश है तो दूसरी ओर शासन-पद्धतियों की खामियों की बखिया उधेडी गई है।
★ यह प्रहसन गुरु चेले के माध्यम से अंग्रेजी शासकों के शासन पर भी प्रकारांतर से कथोपकथन के प्रहार करता है।
★ एक संदेश उभरता है, जिस राज्य में विवेक-अविवेक का भेद न किया जाए, वहां की प्रजा सुखी नहीं रह सकती।
★ ‘अंधेर नगरी’ को ही ‘हिंदी का सर्वाधिक मंचित नाटक का खिताब मिलता।
★ इस नाटक का कथ्य लोक लुभावना और मनोरंजक है।
★ इसके लिखित रूप में ‘रंगमंचीयता’ निहित होने के कारण इसे मंच पर तथा नुक्कड़ नाटक के रूप में प्रस्तुत करना सहज और सरल है।
★ इस नाटक में समयानुसार न्यूनाधिक परिवर्तन करके निर्देशक व अभिनेता-मंडली द्वारा इसे बार बार नई अर्थवत्ता प्रदान की जा सकती है। इस अर्थ में ‘अंधेर नगरी’ को एक ‘विकासशील’ नाटक कहा जा सकता है।
★ मेवे वाला मुगल – “ले हिंदुस्तान का मेवा फूट और बेर।”
अमारा ऐसा मुल्क जिसमें अंगरेज का भी दांत खट्टा हो गया…
हिंदुस्तान का आदमी लक-लक (कमजोर), हमारे यहां का
आदमी बुंबुक बंबुक (शक्तिशाली) ।”
इन पंक्तियों में ‘फ्रूट और बेर’ शब्दों के त्वरित उच्चारण के अनुसार उनकी वर्तनी बदल कर ‘फूट और बेर’ कर दी गई है। और इस तरह भारतीयों के बीच आपसी फूट, जातिगत और सांप्रदायिक भेदभाव तथा वैर भावना के कारण उत्पन्न राष्ट्रीय कमजोरी की ओर संकेत किया गया है। साथ ही उस ब्रिटिश-अफगान संघर्ष का ऐतिहासिक संदर्भ है।
★चूरन जब से हिन्द में आया।
इसका धन बल सभी घटाया।
चूरन ऐसा हट्टा-कट्टा ।
कीना दाँत सभी का खट्टा’ ।। इन पंक्तियों में चूरन को ब्रिटिश सत्ता की तरह रेखांकित किया गया है। अगर चूरन शब्द को विस्थापित करके यहां अंगरेज शब्द रख दें तो अर्थ एकदम स्पष्ट हो जाता है
★ चूरन साहेब लोग जो खाता।
सारा हिन्द हजम कर जाता।।
पंक्तियों में सारा हिंद हजम कर जाने वाले साहब लोगों (अंगरेजों) के पिट्टुओं के रूप में सक्रिय सरकारी अमले पर सूदखोर महाजनों पर और कानून की भक्षक पुलिस पर निशाना साधा गया है।
★ मिठाई वाला हलवाई-“इस नगरी की चाल यही है। यहां सब चीज टके सेर बिकती है।”
“इस नगरी की चाल” यानी इस व्यवस्था का चरित्र यही है। लोगों के विशिष्ट गुणों और क्षमताओं को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। सबको एक ही लाठी से हांका जाता
है।
★ “बसिए ऐसे देस नहिं, कनक-वृष्टि जो होय ।
रहिए तो दुख पाइए, प्रान दीजिए रोय।।”
अपने लोभी शिष्य गोबर्धन दास से बाजार और नगर के विवरण सुनकर महंत गुरुजी ‘कनक-वृष्टि’ वाली इस नगरी को ‘देस कुदेस’ मानते हुए यहां से तुरंत प्रस्थान करने का निर्णय ले लेते हैं। (कनक का अर्थ यहां स्वर्ण समझें अथवा धतूरा, नशा दोनों में है। इस नगरी में मनुष्य का बौराना, अहंकारग्रस्त होना स्वाभाविक है। और जिसे अहंकार ने दबोच लिया, वह अपने साधु-स्वभाव को कैसे कायम रख सकता है?)
★ “सेत सेत सब एक से, जहां कपूर कपास। ऐसे देश कुदेश में, कबहूं न कीजै बास । कोकिल बायास एक सम, पंडित मूरख एक इंद्रायन दाडिम विषय, जहां न नेकु विवेक ॥ बसिए ऐसे देस नहीं, कनक-वृष्टि जो होय। रहिए तो दुख पाइए, प्रान दीजिए रोय।।”
अंधेर नगरी के गुणी लोग चंदन और कीकर वृक्ष का भेद, हंस और काक का भेद, हाथी और गधा का भेद और कपूर एवं कपास का भेद न जानने वाले हैं। यहां सब वस्तुएं हैं, चाहे मानव हो, धर्म हो, कबाब हो, हलवा हो, सब्जी हो, जानवर हो किसी में कोई अंतर नहीं है। यहां सब चीजें टके सेर बिकती हैं, “टके सेर भाजी टके सेर खाजा”। महंत के ये विचार सबसे उल्लेखनीय है
★ अंधेर नगरी की सत्ता, मूर्ख राजा एवं नौकरशाही मिल कर जनता का मनमाना शोषण करते आ रहे हैं।
★ अंधेर नगरी का बाजार व्यंग्यात्मक ढंग से हिंदुस्तान की बुरी हालात का पोल खोल देता है। यहां टके का महत्त्व सर्वोपरि है। टके के लिए जाति, धर्म आदि बेचे जाते हैं।
★ अंधेर नगरी अंग्रेजी राज्य का ही दूसरा नाम है।
★ नाट्य प्रयोग एवं विषय की दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण एवं प्रासंगिक दो नाटक हैं-‘भारत दुर्दशा’ और ‘अंधेर नगरी’।
★ ‘भारत दुर्दशा’ हिंदी का पहला राजनीतिक नाटक है तो ‘अंधेर नगरी’ हिंदी का पहला आधुनिक नाटक है।
★ भारत दुर्दशा’ और ‘अंधेर नगरी’ नाटकों की विरासत अथवा प्रासंगिकता पर मुख्यतः तीन स्तरों पर विचार किया जा सकता है राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक।
★”जहां न धर्म न बुद्धि
नहिं,
नीति न सुजन समाज ।
ते ऐसे आपुर्हि नसे,
जैसे चौपट राज ।।
राजा धर्मबुद्धि व नीतिप्रिय नहीं होगा तो उसका और उसके देश का विनाश अवश्यंभावी है। भारतेंदु ने धर्म के मूल तत्त्व और मर्म को समझकर कहा- “देश और समाज के अनुकूल और उपकारी हो उनको ग्रहण कीजिए।
चन्द्रगुप्त नाटक
स्कन्दगुप्त नाटक
ध्रुवस्वामिनी नाटक
अंधायुग नाटक
एक और द्रोणाचार्य नाटक
बकरी नाटक
महाभोज नाटक
अधिक जानकारी के लिए क्लिक करे।